इस सफ़र में इतनी दूर, अकेले चल चुके है , कि,
अब किसी का साथ, मंज़ूर नहीं ;
ज़िन्दगी से लड़ते लड़ते इतना टूट चुके है, कि,
अब खुद से कोई, उम्मीद नहीं।
ठोकरों की बाज़ार में,
आँसूओ के अहंकार में,
हम यूँ उलझते गए, कि,
अब किसी रिश्ते से वफा की, कोई गुन्जाइश नहीं।
कुछ खो सा गया है, अंदर ही अंदर,
बिखर सा गया है, बहुत कुछ ;
इस कदर तन्हा हुए हम, की,
अब किसी के नामौजूदगी का, खौफ़ नहीं।
निहायती बेशर्म किस्म के लोग हैं,
गजब बात करते हैं, बताओ!
जलते दिल का तमाशा, खुद ही बनाकर,
अब वहीं कहते हैं,
उन्हें, मज़ाक् पसंद नहीं?