जबसे तुम अपने घर गई हो
तकिया रेसाई हुई है,
जहा लेती थी वहां से उठती ही नहीं।
कंबल भी मुंह फुलाए गुदड़-मुदड़ कर
कई दिनों से एक कोने में पड़ा है।
चादर एक तरफ सिमटी हुई
पलंग से लटक रही है मुर्दे कि तरह
नीचे गिरती ही नहीं।
वो आधा पिया हुआ ग्लास का पानी
सूखता ही नहीं
दिन-ब-दिन खुद को और गंदा करते जाता है।
फर्स ने खुद को धोना और पोछना बंद कर दिया है,
ना झाड़ती ना सवार्ती है।
वो टेबल में रखे गज़रे जो मै जाते वक़्त तुम्हारे लिए लाया था और तुम भूल गई उन्हें लगाना,
तुम्हारे बालों में लगने कि जिद से खुद को सुखा डाला लेकिन टश से मस नहीं हुए।
टीवी के रिमोट के उन बटनो में धूल नहीं जमी जिसको तुम दबाया करती थी।
मेज़ ने एक दूसरे से बात करना बंद कर दिया है,
ना हिलती है ना डुलती है।
बर्तनों ने बहुत परेशान किया है ना तुम्हे,
अब वो भी चुप्पी साधे बैठे है,
उनकी भी बोलती बंद है।
जिस गैस के चूल्हे ने तुम्हारा इतना पसीना निकाला,
अब वो भी ठंडा पड़ा है
मुझसे तो इस कदर नाराज़ है कि जलता तक नहीं।
अयना कितना शूना और तन्हां पड़ा है,
तुम आओगी तो मकड़ी के जाले दिखा शिक़ायत करेगा तुमसे।
वो अधी खाई हुई प्लेट उसी हाल में है जिस हाल में तुमने उसे छोड़ा था,
मुझे बस दूर से आंखे दिखाती है।
वो तुम्हारे हाथ सर्यायी हुई अलमारी कितनी उलझी पड़ी है,
क्या हाल बना लिया उसने अपना?
तुम्हे मालूम भी है।
मैंने कोशिश की सर्यान की लेकिन उसमें भरे कपड़े एक दम से गुस्से से गिर पड़े।
मै डरा सहमा वापस से उन्हें वैसे ही थुस कर भर दिया,
अब खोलने कि हिम्मत भी नहीं होती।
वो झाड़ू मुझे हमेशा घूरता रहता है।
वो फरस की धूल मुझे धमकाती है।
ये पूरा घर मुझे खाने को दौड़ता है।
तुम आजाओ,
मेरी इन सब से बनती नहीं।
बंद खिड़की के मूरत बने टंगे पर्दे
फिर से लहलहाने के लिए बेकरार है
तुम्हारे जाने से कमरे से तुम्हारी खुश्बू भी चली गई है
इस कमरे को उस महक की इंतजार है।।
आखिर तुमने मेरे साथ-साथ इन्हें भी अपना बनाया था
मुझसे पहले तो तुमने इन्हें अपनाया था।
तुम्हे मायके जाने दिया मैंने
इसलिए कोशते है मुझे
देखते है थका हरा घर आया है
फिर भी आने से रोकते है मुझे।
ये सब नाराज़ है आखिर तुम्हारे ही भरोसे थे
अपनापन टूटा हुआ है।
तुम मायके क्या गई कुछ दिनों के लिए
कमरा रूठा हुआ है।