चढ़ता दिनकर,
अंधियारे को काट चला आता है,
उज्यारे में वो सब को राह नई दिखता है,
ये खुदपे है आंख को खोलो,
या फिर आंखे मुद लो तुम,
जग के सच से पीठ करो और,
अपने सच को सींचो तुम,
क्या ये अपना हाल हुआ है,
कभी बैठ ये सोचो तुम,
धारा संग बहते है निर्जिव,
धारा के विपरीत चलो,
जो अनैतिक है उसे छोड़ो,
नैतिकता के साथ चलो,
दिनकर के तेज से सीखो,
अंधेरे को चीर चलो।