बताओ ना ऐतबार क्यूँ है
गर प्यार है तो इज़हार में इंतज़ार क्यूँ है
हर शख्स मुझसे एक ही सवाल पूछता है
की तेरे हुस्न का हर कोई तलबगार क्यूँ है
एक शाम महफ़िल में मुलाकात की तुमसे
आँखों ही आँखों में पीने की बात की तुमसे
अरे खो गए अब तो होश भी नहीं
तेरे हाथों का प्याला इतना असरदार क्यूँ है
आहट ना हुई मेरे आँगन में तेरे आने की
मुझसे लिपटने की और टूट जाने की
अब तो आवाज़ भी खामोशी में डूब जाएगी
अब मैं किससे पूछूँ तू मेरा इतना हसीन राज़दार क्यूँ है
शराफत की चादर उतर गई है
कुछ बदमाशीयाँ हों ऐसी चाहत हुई है
मैं जब भी चाहूँ तेरी लहरों में डूब जाऊँ
मुझे नहीं पता ऐ हुस्न मेरा तुझपे इतना इख्तियार क्यूँ है