हर शाम लेकर बैठता हूँ
कागज़ का एक टुकड़ा
मिटाना चाहता हूँ यादें
पर नज़र आते हैं साये में
कितने भूले बिसरे चेहरे
छूना चाहता हूँ फिर से
एक बार उन चेहरों को
तराशता हूँ उनको अपनी
कूंची की नाज़ुक लकीरों से
जाग उठती हैं फिर यादें
कब समझेगा पागल मन
निरर्थक है यह उपक्रम
न मिटा पायूँगा ये यादें
न ही भूल पाउँगा वो चेहरे
हर रोज़ ही होगी यह शाम