कभी कभी लगता है के फूट फूट के रोना है मुझे।
अपने अंदर की सारी आलोचनाओं को कोसना है..
दिल में छिपी सारी नाराज़गी और उदासी को ललकारना है..
मानो जैसे कोई सिसकता रहता हे अंदर मुझ में I
बहुत कोशिश करती हूँ के रोना आ जाए,
पर आँखे नम होने से आगे बढ़ ही नहीं पाती..
एक भी ऑंसू नमी से उभरकर छलकने को तैयार ही नहीं होता, जैसे आँखों में ही उनकी लक्ष्मण रेखा बन गई हो..
लोग कितनी आसानी से कहते हैं कि रोना कमजोरी होती है..
मुझे हँसी आती है ऐसी बातों पे..
क्या सच में ये कमजोरी होती है अपने आपको बेबस, लाचार, असाहाय महसूस होने देना?
उस पीड़ा के मूल स्त्रोत तक पहुच जाना और विकलनीयता में डूब जाना?
बहुत गेहराई होती हे पीड़ा मे..
जनम लेनेवाला शिशु और एक माँ दोनो गेहरी पीड़ा से गुज़रते है तब जाके एक नया जीव जन्म ले पाता है..
कोई भी पहला एहसास खुशी या गम के ऑंसूओं से आँखे भर देता है..उसके बिना तो मानो उसकी उत्कटता अधूरी सी है..
और मृत्यु के वक्त की वेदना भी तो हमने पढ़ी सुनी है ही, वो भी बिना रूलाये कभी छू पाती है, हमें और हमारे अपने को..
रोना बाखुबी निजी भाव है I
इतना की कई बार हम उस भाव को देखने की हिम्मत ही नहीं कर पाते!
फूट फूट कर रोने के बाद आने वाला ख़ालीपन पहाचना है कभी उसे?
हम तयार ही नहीं होते हैं हमारा भारीपन त्यागने को!
बरसों से किसी दुख का बोझ उठाये उसे ढोना हमें आसान लगता है..
पर, आंखों से साफ किया मन का हलकापन झेलने के लिए भावनाओं का साफ होना भी तो जरुरी है..
जरुरी हे बेझिझक, बेधड़क खुद से ईमानदार होना…
और खुद का सच्चा साथी होना तो, हिम्मत की बात होती है ना?
मैं कैसे मान लू रोना कमजोरी है,
वो तो स्वाभाविक है.. सरल है.. ये तो हम हैं जो अढेल है…खुद के दिल-ओ-दिमाग से डरे हुए है |