वामनजी के चरणों को पखारने वाली,
ब्रह्मा जी के कमंडल के नीर की ढाल,
महादेव की जटाओं से फिसलते हुए,
अपनी जननी से बिछड़ते हुए,
हिमालय के पहाड़ों को कचोटते हुए,
बनी मैं धरती माँ की भागीरथी;
हर हर गंगे मेरी ताल।
फिजा को करती शोभायमान,
खेतों का सम्मान,
हरे मैदानों का अभिमान,
हर स्थल के सौंदर्य को बढ़ाती मेरी शान,
मेरी पावनता हर साधु साध्वी का परवान,
हर हर गंगे मेरी पहचान।
उत्तराखंड मेरा पहला पड़ाव,
हरिद्वार का किया मैंने घेराव,
अलखनंदा से मेरा अविस्मरणीय जुड़ाव,
दर्शन करो कभी काशी वाराणसी जैसे तीरथ के जहां पर मेरा प्रभाव,
जमुना से मेरा विशेष लगाव,
मेरे आंचल में भक्तों के लिए कहाँ प्रेम का अभाव,
बंगाल की खाड़ी मेरा ठहराव ,
हर हर गंगे कहकर पापों का, अस्थियों का विसर्जन करना मेरा स्वभाव।
मेरी हर एक बूंद शुद्धता का प्रतीक,
उसी शुद्धता को मलीन कर रहा मनुष्य होकर निर्भीक,
यह माँ का अपमान नहीं हुआ सटीक?
प्रण ले मानव, मुझे विशुद्ध रखना है तुझे ,
फिर ही हर हर गंगे के जयकार हर जगह गूँजे।।