न पहले वाले मकान रहे न पहले वाले मकीं रहे
देख के इन तस्वीरों को, आंखो से पानी नमकीन बहे।
हाँ, भेजी है किसी ने पुराने बसेरे की कुछ नयी तस्वीरें ,
देख रही हूँ वक्त ने कुछ मिटाई, कुछ बनाई है लकीरें।
वो गली ,वो मुहल्ला जिसमें हम जाने कितने साल रहे,
वो घर जिसमें रहने के तजर्बे खुद मे बेमिसाल रहे ।
वो दरवाजा, जिसपे कुंडी तो थी पर कम काम आती थी
मेरे घर के बिलकुल अंदर तक सुबह और शाम आती थी।
वो आंगन, जिसमें गर्म रातें सोते जगते गुजरती थी,
वो छत, जहाँ सर्द धूप के साथ -साथ चटाई सरकती थी।
वो नुक्कड़ ,जहाँ से शुरू हो जाता था घर सा एहसास,
वो दिन, हाँ ईंट गारे मकान नहीं, वो दिन ही थे खास।
जब पूरा मुहल्ला घर सा था और घर था मुहल्ले सा,
वो गली बड़ी गुलज़ार थी माहौल था हल्ले गुल्ले का।
शादी त्योहारों मे इक घर नहीं, पूरी गली सजती थी
और सज धज के वो पुरानी-छोटी गली खूब जचती थी।
वो बचपन के दिन थे, फारिग शामें थी, बेफिक्र रातें थी,
बेवजह कहकहे थे, अल्हड़ किस्से थे, बेमानी बातें थी।
इन तस्वीरों में खोज रही हूँ वही बचपन, वो पुराना घर,
क्योंकि न पहले वाले दिन रहे, न रहे पहले वाले मंज़र।