By Shashi Shikha
चुप्पी सा धे ची खों की आवा ज़, रह रह कर मेरे का न सुन्न कर रही है. मेरे दि मा ग की बत्ति यां डगमगा रही हैं और शा यद अब बुझ भी जा एंगीएं गी.
इस चुपचा प की ची ख में नि र्दयी ता कत है , ये आग है , लपलपा ती हुई, न बुझने वा ली , मेरे आत्मा को जला ने वा ली . ये चुप्पी वा ली ची ख बहरूपि या है, जो दि खती ही नहीं पर अन्दर ही अन्दर पनपती ; लहलहा ती है ,
चूसती है, आत्मसम्मा न को , और मुझे खो खला बना ती है .
ये सां प है, जो हर पल मुझे अपने वि ष के ज़हर से डस रही है… मेरे सा रे रि श्ते बेका र, मेरी उम्मी दें नका र, मेरी इच्छा का तो को ई वजूद ही नहीं !
मेरी अभि ला षा एं न पा ने वा ले सपने हैं , ऐसे सपने जि नका हकी कत हो ना ना मुमकि न है…
मेरी खुद की वजूद की लड़ा ई मेरा मतलबी पन है !
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पर असलि यत में, ये लड़ा ई मेरी अपनी बेचा रगी से है . इतनी हि म्मत का हो ना , की अपने खुद के नि र्णय के सा थ अटल खड़ी रह पा ऊँ ,
अपने ज़ि न्दगी के मा यने खुद तय करूँ, और उसको उसी तरह से जी ने की को शि श कर पा ऊँ.
अपनी रा ह अपने कंडी शंस पर तय करूँ , उस रा ह में को ई सहा रा मि ले तो उसे अपना ला ऊं
ज़ि न्दगी को अपने नज़रि ए से जी ने का प्रयो ग कर पा ऊँ और अगर ना का म हो भी गयी , हो ही गयी , तो उसकी सी ख संभल पा ऊँ .
By Shashi Shikha
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