By Sandeep Sharma
सहरा में जैसे सराब नज़र आ रही है
ज़िन्दगी हाथों से फिसलती जा रही है
अब मैं बिखरी हसरतों को समेटूं भी तो कितना
चाक-दामन से ख़ुशियाँ निकलती जा रही हैं
एक तेरा ही सहारा है अब मेरे हम-नवा
क्या तुझ तक मेरी सर्द आह आ रही है
रफ़्ता-रफ़्ता बुनता रहा जिस ज़ीस्त की चादर को
वही मैली चादर अब सिमटती जा रही है
राएगाँ न हो ये ज़िन्दगी का सफ़र एक मुलाक़ात तो कर
हाल से मेरे हो तू भी वाक़िफ़ दिल से यही सदा आ रही है
किन मरहलों से गुज़र रहा हूँ मैं मेरा यक़ीन तो कर
अब ना जीने का है मज़ा और न मौत आ रही है
By Sandeep Sharma
Right! Today is a gift, so we call it present. 🤗
Very nice bro keep it up
Sahab jindgi h ye pakdo nhi bs jiyo