By Deepshikha
प्रेम अकस्मात प्रत्यक्ष नहीं होता,
प्रथमत: प्रेम अंकुरित होता है आत्मा में,
एक अंतराल तक सुषुप्त विचरता है अवचेतना में,
जैसे जाल बिछाने के बाद शिकारी बस करते हैं इंतजार,
आहिस्ता आहिस्ता विकसित होता है स्मृतियों में,
फिर होता है जीवंत विचारों में,
उतरता है रुधिर में,
फैलता है देह में, अस्थियों में,
वस्तुत: होने लगता है पूर्ण रूप से स्पष्ट स्वभाव में,
प्राकृति में, प्राथमिकताओं में, परिस्थिओं में....
ऐसे ही, परिस्थिओं के पलटने पर,
जब कभी प्रेम के बंधन टूटते हैं,
एक बार फिर होता है मूल्यांकन प्राथमिकताओं का,
लाज़वाब होती है प्राकृति,
अदम्य होता जाता है स्वभाव,
एक जहर उतरता है रुधिर में, फैलता है देह में,
टूटते है आईने, प्रतिबिंब
स्मृतियाँ चुभती हैं चेतना में,
विचार करते हैं आघात अवचेतना पर,
लगती है चोट आत्मा को।
प्रेम क्षणिक ही प्रकट नही होता,
और ना ही क्षण भर में होता है लुप्त,
प्रेम आत्मा से लेता है जन्म,
और प्रेम के आघात भी लगते है, आत्मा पर,
आत्मा को करते हैं बंजर...
By Deepshikha
आपकी कविता जीवन और प्रेम के गहरे और अद्वितीय पहलुओं को एक बेहद सुंदर तरीके से प्रस्तुत करती है। प्रेम की महत्वपूर्ण भूमिका को आत्मा के रूप में व्यक्त करना और जीवन के मोमेंट्स को एक अद्वितीय दृष्टिकोण से देखना यह आपकी कविता का महत्वपूर्ण संदेश है।
Insightful view on reimagining love.
Very Nice :)
Rooh se rooh tak ka prem❤️
Wow, you beautifully tells us how love starts inside us like a tiny seed, then sneaks into our memories, and suddenly it's all around us, in everything we do and see. It's like love just takes over!
I'm still wondering to find my love!
Amazing Read!