By Shivam Sarle
कहाँ-कहाँ नहीं ढूंढा तुम्हें...
गलियों में गलियारों में
मौसम की बहारों में,
जान से प्यारे यारों में
दूर-दराज के रिश्तेदारों में।
कहाँ-कहाँ नहीं ढूंढा तुम्हें...
घरों के उन दरवाजों में
सदियों के रीति रिवाजों में,
उत्सव के काम-काजों में
बजते हुए उन बाजों में।।
इन पागल नैनों ने दुनिया देखी
पर भीतर अपने देखा ही नहीं,
तुम मुझमें ही तो सिमटी थी
थी हर-पल मेरे साथ यहीं।।१।।
कहाँ-कहाँ नहीं ढूंढा तुम्हें...
लकड़ी की उस अलमारी में
या वही चार दीवारी में,
टंगी तस्वीर की कलाकारी में
उस होली की पिचकारी में।
कहाँ-कहाँ नहीं ढूंढा तुम्हें...
सावन के उन झूलों में
बचपन की उन भूलो में,
धौंकनी वाले चूल्हों में
या उन कोमल फूलों में।।
इन पागल नैनों ने दुनिया देखी
पर भीतर अपने देखा ही नहीं,
तुम मुझमें ही तो सिमटी थी
थी हर-पल मेरे साथ यहीं।।२।।
By Shivam Sarle
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