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गांव

By Nidhi Pant




सड़क के गांव जाने से पहले ही गांव शहर जा चुका था।अपना आज लेकर अतीत को जीने कभी कबार कोई आ जाता है चौपहिये पर। नरम साफ सुथरी चमकती सड़क उस दिन अपने होने की सार्थकता सिद्ध करने में लग जाती है। दो चार दिन कोई टिक जाए तो वो अपने साथ शहरी अंदाज़ लेकर ही आता है। पैरों के बदले सड़क पर सुबह शाम पहिए घूमते नजर आते हैं। सड़क के होने का मतलब तो समझ आ गया।अब बारी आई दरार भरे घरोंदों के भूले बिसरे पलों की, जहां पत्थर और इंटें तो झट से बता देती हैं कि हमने यहां अपना कुछ जिया ज़रूर था।पर क्या जिया उसके लिए अपने मन की आंखों से उन दरारों के बीच एक चलचित्र खींचना पड़ता है। तभी घड़ी की सुई और गाड़ी का हॉर्न दोनों साथ में वापस लौटने की आवाज़ बनकर दरारों को भरने नहीं देते। अब कब आना होगा उसका भान किसी को नहीं।पर उस घर का हर एक अवशेष अनुमान लगा लेता है कि वर्तमान में उसकी जगह का बनना बमुश्किल संभव है।


By Nidhi Pant




 
 
 

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