By PRATEEK SAINI
कुछ बचपन से पाली हसरतें हैं मेरी
उन्हें आहिस्ता बडा होते देखना चाहता हूँ
कुछ खास नहीं है मेरी उम्मीदें
फिर भी उम्मीद करना चाहता हूँ
वो सालों से जो दबी है सपनों की पोटली
आज फिर उसे टकटकी लगाए देखना चाहता हूँ
काफी सस्ते से हैं यूं तो अलफाज मेरे
शायरों की महफिल मे फिर भी बेचना चाहता हूं
कुछ तो फाबत होगी अम्मी की उन दुआओं मे
जो आज भी जिंदा हैं दुनिया की बद्दुआओं मे
कहने को कुछ ना हो तो बस आंसू बोलते हैं
आज भी हर गम की कीमत उसके लफ्ज़ तोलते हैं
चलो माना मुझे हर शब्द कहना नहीं आता
हर जज़्बात की तेज मे बहना नहीं आता
पर फिर भी खुदबखुद बडा बन जाता हूं
हा मैं घर का बेटा हूँ खुद ही सम्भल जाता हूं
हर जश्न का जिम्मा खुद ही उठा लेता हूँ
पिता की वो सलवटें अब पहचान लेता हूँ
सीख गया हूं मैं वो बडप्पन का नकाब पहनना
भीड मे भी अब खुद को पहचान लेता हूं
वो कहते हैं हम लाठी हैं बुडापे की
इसीलिए शायद हर आवाज पहचान लेता हूं
अब कितनी भी खामोशी हो घर की दीवारों मे
मैं बेटा हूं सब जान लेता हूं
मैं बेटा हूं सब जान लेता हूं
By PRATEEK SAINI
Mast....
Khoob sahi...
Great
👍🏻👍🏻
❤️❤️