By Nikhil Datar
जिंदगी की इस सफर में अब गिनती कैसी मै करुं उभरुं अपने ही भस्म से फिर मृत्यू से व्यर्थ क्यूँ डरुं...धृ.
जिप्सी बनकर कभी कभी इधर उधर भटकता हूं गिरे हुए वे टुकडे सभी पाने की कोशिश करता हूं क्या खोया और पाया इसको याद रखकर कूच करुं उभरुं अपने ही भस्म से फिर मृत्यू से व्यर्थ क्यूँ डरुं...१
पथ पर बिखरे काटो को मै आग बनकर जलाऊं चाहे कितने मंथन हो विष पीकर अमर हो जाऊं फूटा सारा आसमां तब भी अडिग बन मै आगे बढूं उभरुं अपने ही भस्म से फिर मृत्यू से व्यर्थ क्यूँ डरुं...२
अपनों को अपना माना लेकीन गुम हो गये वे सारे घोर निशा के अति रण में साथ आये अंजान सितारे आंधी के इस सागर को मारुति सम मै पार करुं उभरुं अपने ही भस्म से फिर मृत्यू से व्यर्थ क्यूँ डरुं...३ ...२
...२...
न झुका हटा और टूटा तब बदनामी का प्रयास किया पर वे क्या जाने क्या हूं मै अंतिम जय का है प्रण लिया टीकांओ की कश्ती बनाकर नये क्षितिज की ओर बढूं उभरुं अपने ही भस्म से फिर मृत्यू से व्यर्थ क्यूँ डरुं...४
छोड दी भले साथ सभी ने तब भी मै सबके साथ हूं अमर पथ को अजेय रखने मै तो निमित्त मात्र ही हूं विद्रोहीयों के जमघट में भी मै नित अपना कार्य करुं
उभरुं अपने ही भस्म से फिर मृत्यू से व्यर्थ क्यूँ डरुं...५
By Nikhil Datar
बहोत खूब
खूप छान
सुंदर
सुंदर