By Devesh Shrivastava
"वो मोड़ याद है तुम्हें, जहां हम रोज़ सुबह जलेबी खाने जाया करते थे। क्या वो झील का किनारा याद है ? क्या वो बारिश में भीगना याद है ? अब तो तुम्हे मेरा नाम भी याद नहीं होगा। एक अरसा हो गया तुमसे मिले, गर मिली तुम तो ज़रूर तुम्हें ये बताऊंगा कि आज भी हर पल सहेज कर रखा है। प्रेम का कोई परिमाण नहीं होता। ये डायरी का आखरी पेज है आगे के पन्ने फटे हुए है... " ये कहकर विभोर ने डायरी रख दी। अनु अपनी ही सोच में डूबी हुई थी, वो दोनों बारिश से बचने के लिए एक मकान में आ गए थे, उसमें कोई नहीं था, सामान सब व्यवस्थित रखा था, और टेबल पर वो डायरी। क्या हुआ होगा ? हम बीते दो घंटे से यहाँ है कोई भी नहीं आया, यहाँ आखिर हुआ क्या है? इन्हीं उलझनों में डूबी अनु खड़ी थी, बारिश अब बंद हो गयी थी। "अब हमें चलना चाहिए, कोई आ गया तो डांट लगा देगा. "
विभोर ने अनु का हाथ पकड़ कर कहा और दोनों बाहर आ गए।
घर आने के बाद भी अनु के मन में वही सवाल थे।
वो कोई परिचित तो थे नहीं, जाने क्यों वो उनकी कहानी में दिलचस्पी ले रही थी। एक सप्ताह के बाद उसने फिर उस घर में जाने की सोची की देखो कोई वहां अब मिलता है क्या? हो सकता है उसे कहानी का दूसरा सिरा मिल जाए और उसकी उलझन खत्म हो जाए।
यही सोचकर वो उस घर में वापस गयी , देख सब कुछ वैसा ही है , अब भी वहां कोई नहीं है। उन लोगो के जाने के बाद वहां कोई आया भी नहीं होगा। क्योकि सूखे पत्ते अंदर फर्श पर फैले हुए थे और सामान धूल से सने हुए थे। वो एक फॉर्म हाउस था, तो आस-पास कोई और रहता भी नहीं था। वो वापस घर तो आ गयी पर दिमाग में तो यही कहानी थी, उसने इस का पता लगाने की ठान ली। उसने पास के पुलिस स्टेशन में जाकर बताया कि क्या उनके पास कोई गुमशुदा, या कोई एक्सीडेंट जैसी खबर है जो वहाँ के रहने वाले लोगों के बारे में पता चल जाए।
पुलिस वालों ने यहाँ तक कह दिया कि ऐसा कोई घर भी नहीं है, उनके रिकॉर्ड में। उसकी उलझन और बढ़ गयी , इतना ही नहीं वो समझ नहीं पा रही थी कि पुलिस ऐसा क्यों कह रही है? जबकि वह वहाँ दो बार गयी है। उसने पुलिस वालों से साथ चलने को कहा। थोड़ा सोचने के बाद इंस्पेक्टर कपूर चलने को राज़ी हो गए। वहां पहुंचते ही अब चौंकने की बारी अनु की थी, वो घर तो था पर हाल उसका वैसा नहीं था जैसा वो देखकर गयी थी, ऐसा लग रहा था मानों वहां कई सालों से कोई गया ही नहीं होगा या कोई रहता भी होगा, और तो और दरवाज़े पर जंग लग चुका ताला था, शीशे टूटे हुए थे और खिड़कियां भी चटक चुकी थीं । वो सहम गयी, पुलिस वाले ने कहा कि हो सकता है यह उसका भ्रम हो या उसने सपने में ये जगह देखी हो और उसे लगा कि सच में ऐसा हुआ है। क्योंकिं अब उसकी बातें भरोसा करने वाली बिलकुल न थी। उसने इंस्पेक्टर साहब को यकीन दिलाने के लिए विभोर से मिलने का कहा और उन्हें अपने साथ घर ले आयी। अब तो उसके पैरों तले से ज़मीन ही निकल गयी, उसके घर में कोई नहीं था। आस-पड़ोस में पूछा कि विभोर कहाँ है?, तो वो कहने लगे कि तुम तो यहाँ अकेली रहती हो ? किस विभोर की बात कर रही हो? कपूर साहब अब सन्न हो गए , कि आखिर चल क्या रहा है? या तो ये लड़की पागल है या ये पुलिस से झूठ बोलकर कोई षड़यंत्र कर रही है। पर अनु के घर पर कोई संदिग्ध स्थिति न लगने पर कपूर साहब ने उसे चेतावनी देकर छोड़ दिया, पर अनु ये सब मानने को तैयार नहीं थी की पिछले छह महीनों से जो विभोर उसके साथ रह रहा है, वो है ही नहीं।
हड़बड़ी में उसने विभोर को फोन लगाया पर ये क्या ? कोई नंबर लग ही नहीं रहा था, उसे चक्कर आ गए और वो बेहोश हो गयी। पडोसी उसे अस्पताल में भर्ती करा आये।
"पिछले पांच सालों से ये ऐसी ही मानसिक अवस्था से गुजर रही है, पता नहीं इसको क्या हो गया? अनु और अनय दोनों खुश थे, उस रात उनकी शादी की सालगिरह थी , ज़ोरों की बारिश हो रही थी , वो दोनों लॉन्ग ड्राइव के लिए निकले थे सुबह तक हम इंतज़ार करते रहे, करीब २ बजे किसी ने बताया की अनु पार्क की बेंच पर बैठी है, अनय कहाँ गया हमें पता नहीं। बस, जब से इसी हाल में है ये, यूँ ही एकटक देखती रहती है, किसी से बात भी नहीं करती। अनय भी लापता है। किसी ने कोई एक्सीडेंट की खबर भी नहीं बताई, न इसे कोई चोट लगी थी। " भरे गले से कहकर उसकी माँ की आँखों में आंसू आ गए । " आप चिंता न करें मिसेस कपूर, सब ठीक हो जायेगा, हम फिर देखने आएंगे, चलो, बेटा विभोर" कहकर मिश्रा आंटी कुर्सी से खड़ी हो गयी। विभोर उनकी ऊँगली पकड़ कर मानसिक चिकित्सालय से बाहर आ गया।
“मैं तुम्हारे लिए खाना लाती हूँ “, दुलार कर माँ चली गयी। अनु व्हील चेयर पर बैठी, यूँ ही शुन्य में देखती रही।
By Devesh Shrivastava
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