By Devesh Shrivastava
सनातन संस्कृति भारत वर्ष की धरोहर है और साथ ही ये बहुत ही वैज्ञानिक भी है । सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक पूरी दिनचर्या में इसके प्रमाण देखने को मिलते हैं । भले ही वो आज के परिवेश में प्रासंगिक न हो या वो लाभ न दे पायें, जो कहा जा रहा है । इसका कारण आज के पर्यावरण का बदला स्वरुप है, जो इसकी उत्पत्ति के समय था ।
हम आज के परिपेक्ष्य में रख के अगर विश्लेषण करें तो पायेंगे कि कहीं जगहों पर उलट ही निष्कर्ष निकल रहे हैं, जिससे कि भारतीय संस्कृति के प्रति वैचारिक मतभेद का दृष्टिकोण देखने मिलता है । कितनी हास्यास्पद बात है, आज जब जंगल , पानी और हवा सब दूषित हो गए हैं, तब हम जीने के लिए वापस भारतीय संस्कृति की ओर लौट रहे हैं, परन्तु भारत की मूल भाषा और लोगों से प्रभावित होकर नहीं, वरन पाश्चात्य की अंग्रेजी भाषा में पढ़ सुनकर। योग को हम विदेशी टीचर्स से सीख रहे हैं, दही को हम योगर्ट के नाम से खा रहे हैं, ज्योतिष को जोडिएक , राशि रत्न को हम एस्ट्रोलॉजिकल ट्रीटमेंट के नाम से किसी महंगे एसी युक्त मॉल में जाकर हज़ारों रुपए देकर ला रहे हैं। आयुर्वेद उपचार को भी जब तक कोई विदेशी न कह दे कि ये फायदेमंद है तब तक हाथ नहीं लगाते। मैंने कई विदेशी भारत में देखे हैं जो सालों से यहीं पर है जीवन जी रहे है वो भी वैदिक पद्धति से प्रकृति के साथ रह कर थेरेपी कर रहे हैं। एक और उदाहरण देता हूँ कि ताम्बे के लोटे में पानी नहीं पीयेंगे पर केन्ट का कॉपर वाला purifier लगवा कर पीयेंगे।
मानव जीवन का मूल उद्देश्य सरलता से जीने और प्रकृति व अन्य जीवों के साथ सामंजस्य से जीना ही लक्ष्य है। इसमें मशीनरी और आधुनिक विज्ञान की जरुरत नहीं है, बस हम ढाई सौ सालों से ग़ुलामी की मानसिकता में जी रहे हैं, जो विदेशी है वही सही है।
बीते सत्तर वर्षों में ही पूरा समाज और पर्यावरण बदल चुका है। विज्ञान के हिसाब से हमने तरक्की कर ली आधुनिक हो गए परन्तु हमने वो खो दिया जो हमारी संस्कृति थी, जो वास्तविक मूल स्वरुप था। ये एकदम वैसा ही है कि विदेशी लोगों ने अपना ख़राब माल हमको बेच दिया और हमसे अमूल्य धरोहर ले गए। आज हम बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में प्रवेश दिला रहे हैं, मल्टीनेशनल कम्पनीज में नौकरी लग जाए बस यही कामना है। आज वो उनके देश में रह कर भी हम पर राज़ कर रहे हैं। खोई हुई चीज हम विज्ञान द्वारा पुनः निर्माण भी नहीं कर सकते ।
ये सत्तर सालों की तस्वीर है तो सोचो की बीते हज़ार -पांच हज़ार साल पहले कैसा देश रहा होगा हमारा कैलेंडर भी उनसे साठ साल आगे है। हमें उनकी घडी भी नहीं चाहिए। एक पल से लगा के चार पहर का एक दिन तक हम सबकी गणना कर सकते है तो कंप्यूटर की भी आवश्यकता नहीं है। बस अब ऐसा हो गया है कि वैदिक विज्ञान और संस्कृति जानने वाले लोग अब नहीं हैं तो हम विज्ञान पर आश्रित हो गए हैं। वैदिक ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी सिखाया जाता था तो सबको पता था और जीवन आसान था, अब उसमें से जिसने पढ़ लिया वो बताने की हमसे फीस लेता है। और तो और उसे भी विशुद्ध ज्ञान का पता नहीं है। आयुर्वेद उपचार में भी सारे चिकित्सा पद्धति शल्य क्रिया सहित उपलब्ध है, जो असाध्य रोगों में अचूक है व आवश्यक भी । आयुर्वेद में नाड़ी परीक्षण से शरीर के अंदर हो रही अनियमिताओं और सुचारु कार्यप्रणाली का पता लगाया जा सकता है ।
इसके बदलाव में बहुत सारी बातों का समावेश है जो हर दिन इसे कमज़ोर बनाता है और आज के युवाओं को अब ये एक कल्पना ही लगती है। साथ ही इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता, जो हमने अपनी आंखों से ना देखा हो, वो या चमत्कार लगता है या फिर एक कोरी कल्पना मात्र। हम उसका विरोध कर सकते हैं, या फिर हम उस पर हंस सकते हैं, या उसे एक काल्पनिक कहानी मान कर जाने देते हैं।
कितनी विचित्र बात है कि कल्पना या कल्पना के भाव ही बदल गए हैं। कल्प का अर्थ बदलाव और कल्पना से भविष्य में ये बदलाव होने की प्रबल संभावना है पर हम इसके मायने ही बदल देते हैं। स्वप्न भी ऐसे ही हमें कई तरह की भविष्यंभावी बातें बताता है, जो हमारे अवचेतन मन से प्रेरित होता है जिसे अंग्रेजी में subconscious mind कहते हैं। इन्ही कल्पनाओं के आधार पर ही आज के सभी तरह के अविष्कार हुए हैं, बिना कल्पना के अविष्कार करना तो दूर उसके बारे में सोचना भी दूभर है।
ये भी सोचें की जो भाषा का ज्ञान हमे नहीं है उसका अर्थ हम अधिकांशतः गलत निकाल सकते हैं , इसमें संदेह नहीं है। उसपर हम झगड़ सकते हैं या उससे दूरी बना सकते हैं।
ऐसा भी है कि हम उस भाषा का अर्थ समझ लेने के बाद भी यदि वो हमारे वर्षों से स्थापित विचार के विरुद्ध है या हमारे अस्तित्व को झकझोरता है तो हम उसका विरोध अवश्य करेंगे, यही मानव स्वाभाव है , जैसे खतरा देखते ही हम या भाग जायेंगे या उस खतरे को ख़त्म करने की कोशिश करेंगे यही उपाय है, अस्तित्व बचा के रखने का। या पुरखों के दिए ज्ञान को सही साबित करने का जो वास्तव में सही हो या नहीं इसकी गारंटी नहीं है।
ये मेरा दृष्टिकोण है मैं किसी की भावनाओ को आहत नहीं करना चाहता, क्योकि मैं जानता हूँ कि मानव वही सोचता है, मानता है, करता है, जो उसे अपने लिए ठीक लगता है।
खगोल से शुरू करते हैं, अनंत आकाश ब्रह्मांड की शुरुआत ही कल्पना से है। ज्योतिष में नवग्रह और भूगोल की परिकल्पना से ही स्पष्ट हो जाता है कि बिना किसी टेलिस्कोप से देखे (जैसा सबको लगता है कि टेलिस्कोप आधुनिक विश्व में आया)। आकाश में व्याप्त ग्रहों, तारों, नक्षत्रों की सटीक परिकल्पना देना और विज्ञान का बाद प्रमाण देना इसकी पुष्टि करता है। भाषा विच्छेद हो सकता है, परन्तु बात तो वही कही गई है।
सनातन में सिर्फ ईश्वर की बात नहीं की गयी है, अपितु जीवन जीने के हर पहलु को सामने लाया गया है। और साथ ही सवाल भी उठाये गए हैं कि इस पृथ्वी से आगे क्या है? जीवन कैसे जीना चाहिए? स्वस्थ कैसे रहा जा सकता है ? बीमार होने पर ठीक होने के उपाय के हैं ? आदि।
सनातन में सन्तानोत्त्पत्ति के सन्दर्भ में भी प्रमाण मिलते है, इतना ही नहीं जीन क्लोनिंग, डी एन ए म्युटेशन, टेस्ट टूयूब बेबी, सरोगेसी, स्टेम सेल रिप्रोडक्शन तक कि बात की गयी है। कुछ समय पहले तक आधुनिक विज्ञान में शल्य क्रिया द्वारा प्रसव को ही सही माना जाता था, परन्तु आज कल सामान्य प्रसव सबसे अच्छा माना जाता है। आजकल के प्रसूति विशेषज्ञ भी सामान्य प्रसव को सही मानते हैं जब तक कि कोई जटिलता न हों। हमारे देश में गृहणियों की दिनचर्या ही इस प्रकार थी कि शरीर की मांसपेशियां मजबूत बनती थी, जिससे सामान्य प्रसव में कोई परेशानी नहीं आती थी , (कुछ अपवाद हो सकते हैं )। अपवाद की स्थिति में आजकल डॉक्टर्स भी सहमति पत्र लिखवा लेते हैं। तो ऐसी किसी परिस्थति का बनना संयोग हो सकता है।
हाल ही में हुई रिसर्च के अनुसार मानव के स्टेम सेल जैसे त्वचा और रक्त से भी नए बच्चे का विकास किया जा सकता है, बिना किसी प्रजनक कोशिकाओं या पारम्परिक तरीकों के। ये अभी शोध के स्तर पर ही है पर भविष्य में इसका विकास होगा और विज्ञान इसमें भी सफलता प्राप्त करेगा। इसके प्रमाण हमें सनातन में मिल जायेंगे, कि सनातन के कितने ही चरित्रों की उत्पत्ति पारम्परिक तरीकों से न होकर किसी विशिष्ट तरीके से हुई उसमें कोई विशेष गुण हैं और उसे कोई खास कार्य करना है। यही जीव की उत्पत्ति से पहले ही ये निश्चित किया जाता है कि इसके जीवन का उद्देश्य क्या है और इसे कैसे प्राप्त किया जा सकेगा।
विज्ञान भी पुरजोर कोशिश कर रहा है और उसके इस प्रयासों के लिए प्रशंसा करना और खुद से सीख कर आगे बढ़ना, प्रेरणा भले कहीं से भी मिली हो, कार्य को गति तो विज्ञान दे रहा है और सभी जटिल सवालों के जवाब भी ढूंढने की कोशिश कर रहा है। इसके लिए विज्ञान को शाबाशी और सफलता के लिए बधाई।
मानव जाति आसानी से किसी बात को स्वीकार नहीं कर पाती है। कल्पना करें की आज से तीस- चालीस वर्ष पूर्व ही कोई इंटरनेट, वीडियो कॉल, स्मार्टफोन, टच स्क्रीन या नैनो टेक्नोलॉजी की बात करता तो उसे भयंकर परिणाम भुगतना पड़ता , जैसा कि दुर्भाग्यवश गैलिलिओ जैसे कई विचारकों को देखना पड़ा था। विज्ञान के प्रयास अद्भुत है ।
कंप्यूटर आज के युग की जरुरत हो सकता है पर जीवन जीने के लिए अनिवार्य नहीं है। कंप्यूटर का खुद का उत्परिवर्तन और विकास भी अद्भुत है। भारी भरकम मशीनों से बढ़कर आज एक नोटबुक, लैपटॉप और स्मार्टफोन तक।
हम कृषि के कारण ही जीवित रह सकते हैं। पुरातन समय में सबके पास अपनी ज़मीनें होती है खुद उगाते खुद खाते थे, आत्मनिर्भर थे, किसी पर आश्रित नहीं, जिसके पास ज़मीन नहीं थी वो अपने अन्य कला कौशल से जीवन यापन करता था।
दु:खद है की कृषिप्रधान देश को कंप्यूटर की भेंट चढ़ा कर हम मॉल से पैक आटा खरीद कर खा रहे हैं। आज की पीढ़ियों को तो ऐसा ही लगता होगा कि अनाज तो मॉल में ही मिलता है, या फैक्ट्री में बनता है। हम सूर्य, पृथ्वी, पहाड़, नदियों, जंगलों को पूजते हैं क्योकि हम जानते हैं कि इनके बिना हमारा जीवन चल ही नहीं सकता।
सुबह उठ के व्यायाम, योग आदि करके स्वस्थ जीवन की निश्चितता हो जाती है। आयुर्वेद में सभी प्रकारों की बीमारियों की चिकित्सा है, शल्य चिकित्सा के प्रमाण भी देखने को मिलते हैं, जो बीमारी आज के दिन चर्या के कारण हुई है उसके मूल कारण का पता लिया जाए तो उसका भी उपचार आयुर्वेद में संभव है ।
आज के विश्व में जनसंख्या विस्फोट हुआ है, मनुष्यों की गिनती इतनी बढ़ रही है कि उतनी भूमि ना होने से जीना, रहना, खाना दिन-ब-दिन मुश्किल होता जा रहा है, परन्तु हम सब कुछ देख कर भी अनदेखा कर रहे हैं क्योंकि ये हमारे अहम् को चोट पहुँचाता है और फिर वही अस्तित्व को बचाने का ढोंग जो करना है।
सब लोग अपने पिता के द्वारा दिया गया अस्तित्व का पाठ रट- रट के प्रवीण होते जा रहे हैं, बस पता नहीं कि करना क्या है?, पिता ने बोला है तो सही ही होगा। उसके लिए हम दुनिया से लड़ जाते हैं। सच पर आंख मूंद लेते हैं । संपूर्ण मानव जाति को इसके भविष्यंभावी खतरनाक परिणाम भुगतने होंगे। वो राजा हो या फकीर कोई फ़र्क नहीं पड़ता प्रकृति समभाव रखती है।
विज्ञान विकास के साथ विनाश भी मुफ्त में दे रहा है, कुछ भी चीजों का आप प्रयोग करें आखिरी में उससे आपको विनाशकारी फल ही मिलेगा। आप खनिज खत्म कर देंगे, भूमि खत्म कर देंगे, वायु प्रदुषित कर देंगे। जल के स्त्रोत सीमित और प्रदूषित कर देंगे। अंतः, युद्ध होगा इन मूलभूत आवश्यकता के कारण ही जो भारत में सुलभ थी, आक्रमण हुए पीढ़ियों दर पीढ़ियों राज नहीं किया गया, जीवन जीया गया, लूट के ले जा सके तो ले गए, रच बस सके तो बस गए, बस युद्ध हुआ, इन्हीं स्रोतों को लेकर बलपूर्वक बताया गया कि हमारा आधिपत्य है, पर तथ्य यही है कि जो शक्तिशाली है वो ही बचेगा “सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट” परंतु कब तक, एक ही मानव बचा है तो वो अकेला कुछ नहीं कर सकता। बिना समाज में अन्य लोगों के जीवन की परिकल्पना संभव नहीं है, बिना प्रजा के राजा कैसे, किस पर राज्य। आप अकेले जीवन जी सकते हैं आप में संपूर्ण सोलह कलाएं हो, आप सोलह संस्कार जानते हो, आपको आश्रम व्यवस्था का ज्ञान हो। बावजूद इसके आप जीवित रह सकते हैं, आप यही सब कर रहे पर इसे समझने का भाव, भाषा और तरीके आपके होंगे और आप उससे अपने पिता द्वारा दिए ज्ञान में समाहित कर, विज्ञान की चाशनी में डूबा कर, बड़े चाव से खा रहे होंगे ।
By Devesh Shrivastava
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