By Chanda Arya
कल रात स्वप्न में विचरण करता मेरा घुमन्तु बचपन
ठेले के पीछे दौड़ता,
रंग - बिरंगे बर्फ के गोले निहारता
हाथ में ले उस गोले को बूंद – बूंद,
मुँह में सहेज लेने की प्रवीणता दिखाता।
बौराया सा टकरा गया,
अपने से लगते एक अजनबी से
मैंने कहा भाई कौन हो तुम?
वो बोला यूँ हँसकर, “तेरा ही प्रतिरूप हूँ मैं, नाम है मेरा
e - बचपन।
कैसा विचित्र था समां बंधा
मैं गुड्डे - गुड़ियों में रमा - रमा,
वह कैन्डी क्रश में जमा - जमा
मैं मुहल्ले की धूल-मिट्टी फाँकता,
चिकनी मिट्टी गूँथ पानी में,
सने हाथों से,
सौंधी आकृतियां कई संवारता
वहीं, वह डब्बा बन्द सभ्य क्ले से कृत्रिम खुशबुऐं बिखरा देता।
मैं गिल्ली के पीछे दौड़ता
रंग - बिरंगे कंचे जुड़ाता, इठलाता जाता,
अपने उस अद्भुत खजाने पर
लपक - लपक कर पिट्ठुओं के ढेर बनाता
फिर गेंद की एक ही चोट से उन्हें
बिखरा देने का कौशल दिखलाता,
संगी - साथियों की टीम बनाता
मुहल्ले में ही वर्ल्डकप खेलता जाता।
वह वातानुकूलित कमरे में बैठा
अपने सपनों की आभासी दुनिया सजा लेता,
क्या क्रिकेट, क्या हॉकी.......
क्या ये गिल्ली - डंडा,
सब खेलों को पर्दे पर जीवंत कर
लेवल के लेवल पार करता चला जाता,
इठलाता जाता वह
उस कृत्रिम सतह पर खुद को पा कर।
वो बैट - बॉल, कंचे, वो गिल्ली - डंडा और
वो कैरम की गोटियां,
सब गतिमान हो जाते थे
उन उंगलियों की छटपटाहट में,
बोलते थे मन की बोलियां
नामकरण कर देते थे अपने हर खेल खिलौने का,
भावनात्मक सम्बन्ध स्थापित करते
रिश्ता बना लेते थे खुद से खेल खिलौनों का ।
तब जो उंगलियां महसूस करती
निर्जीव खिलौनों की सजीव श्वासों को,
अब वही उंगलियां चलती
सजीव करती आभासी दुनिया के किरदारों को,
वही उंगलियां चलती हठात् मोबाइल, कम्प्यूटर के की बोर्ड पर
सधी हुई उंगलियां गतिमान करती उन नकली बुतों को स्वयं से जोड़ कर,
अपने अनुसार नियन्त्रित करती,
खिलखिलाती एक झूठ के आवरण में।
न महसूस करती अपनी मिट्टी - पानी की महक
पर्दे के पीछे देखती वो जीवन की हर चहक,
जो न भाव विकसित करता कोई, न कोई संवेग
बचपन की आभासी दुनिया में बस विकट हुए आवेग,
कृत्रिमता में खो गया हूँ, नाम है मेरा e - बचपन
कल रात स्वप्न में विचरण करता मेरा घुमन्तु बचपन।
By Chanda Arya
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