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Kitabein

By Dr Kavita Singh


किताबें….

कुछ कही, कुछ अनकही!

कुछ पढ़ीं, कुछ अनपढीं!

कभी झाँकती सजी दीवारों से,

कभी गुमनाम किताबघर के गलियारों में I

कहीं धूल की परतों में सिसकती,

कहीं शान से किसी बैठक में सजतीं I

कभी दबे पाँव से आने की आहट,

कभी अख़बार की सुर्ख़ियों की सजावट I

बेबसी सिमटकर चेहरे पर छाई,

वजूद कायम रखने की नौबत क्यों आई I

ऐसा वक्त तो पहले कभी नहीं था,

आदमी इतना बेवफ़ा कभी भी नहीं था I



क्यों बेख़बर हो गया इनसे ज़माना,

क्यों बेमुरव्वत हुआ जो कल था आशिकाना ?

इनके टूटते अलफ़ाज़ को क्यों आवाज़ नहीं देता,

क्यों अपने हमसफ़र का फिर साथ नहीं देता ?

छिपा है पन्नों में सदियों का इतिहास,

वक्त के हर सवाल का जवाब है इनके पास I

बेशकीमती खज़ाना छिपा है यहाँ,

सिमटा है इनमें सारा जहां I

दुनिया को अपने दामन में बसा लो,

चलो, फिर से किताबों को दोस्त बना लो I

किताबें…

कुछ कही, कुछ अनकही!

कुछ पढ़ीं, कुछ अनपढीं!


By Dr Kavita Singh



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