By Solanki Mohit
हाल ये है कि अब कोई पूछता ना हाल,
बेहाल कर गया ख़ुद के फ़िसाल का ख्याल।
ये कैसा ज़वाल करता रहा ख़ुद से सवाल,
दफ़्न कर गया मुझे ये मलाल कि
यहाँ हकीकत में नहीं होता कोई कमाल।
सब है बस ख़्याल मेरी बेहोशी में,
ख़ानाबदोशी में फिर रहा दर-बदर,
कहाँ होगा मेरा बसर? कोई ख़ौफ़ नहीं कल का,
ना कल का कोई मलाल, हो चुका हूँ निढाल।
अब उम्मीद के साये भी हमें छोड़ गए,
ना-उम्मीदों में दिन गुज़र रहे,
गुज़र ही रहे हैं हम भी, ख़ुद को खोकर,
दिल मोड़ कर सबसे, ख़ुद से भी दूर चले गए।
ख़ुदा की तलाश करने वाला खो गया,
हो गया जो होना था, सो गया सारा शहर।
जो जागता था मेरे ज़ेहन में रातों को,
बातों में, जो ख़ुद से कभी किया करता था,
जी हाँ, शराब मैं भी पिया करता था।
ज़ाहिर है अब तो सब, कुछ छुपा तो नहीं?
बर्बादी का कहर क्या अभी तक बरपा नहीं?
पूछो उनसे जिनको शौक नहीं था होने का,
उनको भी इस वजूद ने बख़्शा नहीं।
खा गया हर ख़ुशी, हर ख़ुशनसीब की,
और बदनसीबों की बदनसीबी का आलम ये था,
कि सुकून से मिली मौत भी नहीं।
माफ़ी माँगते रहे वो जिनका कोई गुनाह नहीं,
रोते रहे और मरते रहे लेकिन उसने सुना नहीं।
ख़ैर, हम माँगते हैं सबकी ख़ैर ख़ुदा से,
जो हमें अब तलक कहीं दिखा नहीं।
और ना ही दिखे तो सही, वरना उसकी ख़ैर नहीं।
सिलसिला ऐसा कि सिलसिलेवार तरीके से बताएंगे।
अब रात हो चली है, हम तारों को देखने जाएंगे।
आसमान में हमें तारों के सिवा कुछ और दिखता नहीं,
एक चांद की तलाश में न जाने कितने रिश्ते टूट गए।
बिखर गए वो सारे ख्वाब और ख़्याल हमारे,
जिनको सजाने में न जाने कितनी रातों के तारे टूट गए।
By Solanki Mohit
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