Nari Sashaktikaran Ki Ghazal
- hashtagkalakar
- Jan 11
- 1 min read
Updated: Jan 18
By Nandlal Kumar
नारी सशक्तिकरण की ग़ज़ल। गज़ल में शीर्षक देने की परंपरा नहीं रही है, नहीं तो मैं शीर्षक देता "मुझे वास्तविक आज़ादी दो"
मैं खिसकती हूँ, वो सरकता जाता है,
मैं सिमटती जाती हूँ, वो फैलता जाता है।
रेल, बस, चौक-चौराहे हर जगह,
एक ख़ौफ़ मुझमें समाता जाता है।
एक ही निगाह रूप बदल-बदल कर,
मेरे जिस्म को खरोंचता जाता है।
कहने को आजाद हूँ पर हर कदम,
बंदिशों का पहाड़ टकराता जाता है।
जैसे-जैसे यौवन और शबाब आता जाता है,
वैसे-वैसे रक्षक भी भक्षक होता जाता है।
भेद खुल ही जाए कि मैं रोती रहती हूँ,
पर मेरा हँसना-मुस्कुराना भ्रम फैलता जाता है।
By Nandlal Kumar
Bahut Umda!
It’s really empowering
Reading that made me emotional😭
this was just blissful
What an absolute masterpiece