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अकेले ही अंजान राह पर चले जा रहे हैं

By Virendra Kumar


सांचे मे मोम की तरह

ढले जा रहे हैं

अकेले ही अंजान राह पर

चले जा रहे हैं l


कहीं खो सा गया है

अपना वो अनोखापन

अब दुनिया की उम्मीदों के मुताबिक

पले जा रहे हैं 


एक आस जो थी वो भी

मेरी ना पुरी रही

किसी अपने के साथ चलने की

ख्वाहिश अधूरी रही 



अब खुद ही अपनी लड़ाई

लड़े जा रहे हैं

सिलेब्स की तरह जिंदगी को भी

पढ़े जा रहे हैं l


ओर और छोर का

कुछ भी तो पता नहीं

अपने ही अंदर हैं सब कमियां

किसी और की खता नहीं 


बे -मिजाज ही हम आगे अब

बढ़े जा रहे हैं

सुनहरी सुबह की ख्वाहिश ही बस

करे जा रहे हैं 


सांचे मे मोम की तरह

ढले जा रहे हैं

अकेले ही अंजान राह पर

चले जा रहे हैं l


काश वो दिन भी

मेरे लिए आता 

मिल जाता वो सब 

जो मेरे मन को भाता 


मेहनत उसके लिए भी

करे जा रहे हैं

पर अपने अकेलेपन से भी

डरे जा रहे हैं 


यही परवाह खुद के लिए

करे जा रहे हैं

की सहन के औकात के अब

परे जा रहे हैं


सांचे मे मोम की तरह

ढले जा रहे हैं

अकेले ही अंजान राह पर

चले जा रहे हैं l


By Virendra Kumar

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