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अधिकार सुख कितना मादक और सारहीन होता है ।

Updated: Jan 18




By Ayush Sharma


 क्या आपने कभी सोचा है कि अधिकार, जो हमें बाहरी रूप से खुश और शक्तिशाली महसूस कराते हैं, क्या वे सचमुच सुख का स्थायी स्रोत बन सकते हैं? अधिकार प्राप्ति का उत्साह अक्सर हमें यह महसूस कराता है कि अब हमें वह सब कुछ मिल चुका है जो हमारी इच्छाओं और सपनों के अनुकूल है। लेकिन क्या सचमुच ऐसा होता है? या फिर यह एक भ्रामक, मादक अनुभव है जो धीरे-धीरे अपनी सार्थकता खो देता है? वास्तव में, अधिकार का सुख अधिकतर लोगों के लिए एक अस्थायी और छलावा होता है। जब हम किसी अधिकार के स्वामी बनते हैं, तो वह हमें अपनी शक्ति और प्रभाव का आभास कराता है, लेकिन इसके भीतर छुपी असंतोष और शून्यता का अहसास हमें धीरे-धीरे होने लगता है। यह अधिकार, जो कभी हमारी आत्मनिर्भरता और संतुष्टि का प्रतीक होते हैं, समय के साथ हमें यह एहसास दिलाते हैं कि हम अपने भीतर के असली सुख को समझने और महसूस करने में विफल हो गए हैं। अधिकारों का मादक प्रभाव, यद्यपि शुरुआत में आकर्षक लगता है, लेकिन यह अक्सर आत्ममुग्धता और असंतोष की ओर ले जाता है। एक व्यक्ति जब अधिकार प्राप्त करता है, तो उसे लगता है कि अब उसकी जीवन की सभी कठिनाइयाँ समाप्त हो गई हैं। वह अपने कष्टों से मुक्त हो जाएगा और जीवन की प्रत्येक कठिनाई को पार कर सकेगा। लेकिन क्या सच में ऐसा होता है? या फिर, यह सिर्फ एक भ्रम है, जो हमें भीतर से और अधिक असंतुष्ट बना देता है। हमने यह देखा है कि समाज में सबसे शक्तिशाली व्यक्ति अक्सर सबसे अधिक अकेले होते हैं, क्योंकि उनके पास अधिकार तो होते हैं, लेकिन आत्मिक संतुष्टि नहीं। क्या यह अधिकार का सुख मादक और सारहीन नहीं है? और क्या इसके पीछे एक गहरा सत्य छिपा हुआ है, जिसे पहचानने की आवश्यकता है? हमें इन्हीं प्रश्नों के उत्तर खोजने की आवश्यकता है, और साथ ही साथ यह भी समझने की आवश्यकता है कि अधिकार और सुख के बीच का संबंध क्या है, और क्यों अधिकार प्राप्त करने का वास्तविक सुख कभी भी स्थायी नहीं हो सकता।


          अधिकार का पीछा करना वास्तव में एक स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति है । मानव स्वभाव में यह प्रवृत्ति होती है कि वह संसाधनों, स्वतंत्रता, और नियंत्रण की ओर आकर्षित होता है। यह प्रवृत्ति उसकी सुरक्षा, अस्तित्व, और सम्मान की जरूरतों से उत्पन्न होती है। हालाँकि अधिकारों का पीछा करना केवल सत्ता की चाह नहीं है, बल्कि यह आत्म-सिद्धि और आत्म-प्रकाश के लिए भी हो सकता है। व्यक्ति अधिक ज्ञान और अवसरों की तलाश में भी अधिकारों का पीछा करता है। मानव सभ्यता के आरंभिक चरणों में अधिकारों (जैसे भूमि, भोजन, या संसाधनों) का पीछा अस्तित्व के लिए आवश्यक था और यह प्रवृत्ति आज भी जीवित है, हालांकि इसके रूप बदल गए हैं। आज अधिकार प्राप्त करके व्यक्ति अपनी स्थिति को मजबूत करता है और यह समाज में सम्मान, प्रतिष्ठा, स्वीकार्यता व मान्यता पाने का साधन भी बन जाता है। हालाँकि व्यक्ति अधिकारों का उपयोग किस प्रकार करता है यह उसकी इच्छा पर निर्भर करता है। 

          

        सर्वप्रथम प्रश्न यह उठता है कि क्या अधिकार और सुख आपस में जुड़े हुए हैं ? अधिकार और सुख एक-दूसरे से जुड़े हो सकते हैं, लेकिन यह जुड़ाव हमेशा स्थायी और सकारात्मक नहीं होता। अधिकार कई प्रकार के होते हैं जैसे - कानूनी अधिकार, प्राकृतिक अधिकार, मौलिक अधिकार, सामाजिक अधिकार, राजनीतिक अधिकार, धार्मिक अधिकार, नैतिक अधिकार, सार्वभौमिक अधिकार, विशेषाधिकार आदि। ये सभी अधिकार अक्सर साधन के रूप में कार्य करते हैं, जो व्यक्ति को किसी न किसी रूप में सुरक्षा, श्रेष्ठता, स्वतंत्रता, और आत्म-सम्मान का अनुभव कराते हैं और यही कारण है कि व्यक्ति इससे सुख का अनुभव करता है।  अधिकार और सुख के बीच भी दो प्रकार के संबंध होते हैं, एक सकारात्मक व दूसरा नकारात्मक। सकारात्मक संबंध तब स्थापित होता है जब अधिकार व्यक्ति को सुरक्षा, स्वतंत्रता, आत्म-सम्मान, समानता और न्याय प्रदान करते हैं वहीं नकारात्मक संबंध तब स्थापित होता है जब अधिकार लालच, प्रतिशोध, शक्ति प्रदर्शन, अन्याय, असमानता और भौतिकवाद से जुड़ जाते हैं। जब अधिकार किसी के कर्तव्यों, नैतिक उद्देश्यों व सामाजिक उद्देश्यों से जुड़े होते हैं, तो वे अधिक सुखदायक होते हैं। जब अधिकार व सुख के बीच सकारात्मक संबंध स्थापित होते हैं तो यह व्यक्ति के लिए दीर्घकालिक रूप से सुखदायक होते हैं वहीं जब इनके बीच नकारात्मक संबंध स्थापित होते हैं तो यह केवल तात्कालिक सुख प्रदान करते हैं और दीर्घकाल में व्यक्ति के लिए हानिकारक होते हैं । उदाहरण के लिए, कलिंग युद्ध के प्रारंभ में अशोक को भले ही सुख का अनुभव हो रहा हो परंतु अंत तक पहुंचते - पहुंचते जब उसने खून से लथपथ जमीन को देखा व कई स्त्रियों को अपने पति के लिए रोता देखा तो अंततः उसे दुःख ही हुआ। ध्यातव्य है कि अधिकार बाहरी साधन हैं और इनका सुख अधिकतर क्षणिक होता है। जैसे, कोई पद या संपत्ति प्राप्त करके मिलने वाला आनंद। सुख का वास्तविक स्रोत व्यक्ति के आंतरिक संतोष, मानसिक शांति, और आत्म-बोध में निहित है। जब व्यक्ति अधिकारों को अपने जीवन का अंतिम लक्ष्य बना लेता है, तो सुख मरीचिका बन जाता है। लेकिन यदि अधिकारों का उपयोग आत्म-विकास और समाज-हित के लिए किया जाए, तो वे सुख का माध्यम बन सकते हैं इसलिए अधिकार व सुख के बीच संतुलन आवश्यक है । 


       अब प्रश्न यह उठता है कि अधिकार प्राप्ति का सुख स्थायी होता है या फिर क्षणिक होता है ? अधिकार प्राप्ति का सुख सामान्यतः क्षणिक होता है, क्योंकि इसका आधार बाहरी उपलब्धियों, अपेक्षाओं, और सामाजिक मान्यताओं पर निर्भर होता है। हालांकि, यह स्थायी भी हो सकता है, यदि अधिकारों का उपयोग सही दिशा में और नैतिक उद्देश्यों के लिए किया जाए। अधिकार प्राप्ति के बाद व्यक्ति को गर्व, खुशी, उत्साह और उपलब्धि का अनुभव होता है। उदाहरण के लिए, किसी उच्च पद पर नियुक्ति व संपत्ति पर अधिकार आदि । लेकिन यह उत्साह क्षणिक ही होता है क्योंकि व्यक्ति नए लक्ष्यों की ओर बढ़ने लगता है और पुराने अधिकार सामान्य लगने लगते हैं। इसके अलावा अधिकारों के साथ जिम्मेदारियां और तनाव आते हैं, जो उस सुख को समाप्त कर सकते हैं। जैसे, एक शासक को मिली सत्ता उसे कर्तव्यों और तनावों से घेर सकती है। कई बार व्यक्ति को समाज और अपनी अपेक्षाओं के बीच संतुलन बनाना कठिन लगने लगता है। यही नहीं अधिकार मिलने के बाद व्यक्ति को नए अधिकारों की लालसा होने लगती है और यह संतोष का अंत और अत्यधिक असंतोष की शुरुआत करता है। लेकिन अधिकार का सुख स्थायी भी हो सकता है, यदि व्यक्ति अधिकारों को कर्तव्यों और सेवा से जोड़ता है। अपने अधिकारों का उपयोग समाज के कल्याण और दूसरों की भलाई के लिए करता है। उदाहरणार्थ, महात्मा गांधी जैसे नेता, जिन्होंने अपने अधिकारों को समाज की सेवा में लगाया। इसके अतिरिक्त सुख का स्थायित्व अधिकारों से अधिक व्यक्ति की आंतरिक सोच और संतोष पर निर्भर करता है। यदि व्यक्ति अधिकारों को साधन समझे और आत्म-बोध को प्राथमिकता दे, तो यह स्थायी आनंद ला सकता है परंतु ऐसा अधिकतर नहीं देखा जाता। इसके बजाय अधिकार पाने की प्रक्रिया में व्यक्ति सुख की कल्पना करता है और अधिकार प्राप्त होने के बाद, यह कल्पना अक्सर वास्तविकता से मेल नहीं खाती क्योंकि सुख के स्थान पर तनाव, जिम्मेदारियां, और नए लक्ष्य सामने आ जाते हैं। इस प्रकार यह मान सकते हैं कि अधिकार प्राप्ति का सुख सामान्यतः क्षणिक होता है, क्योंकि यह बाहरी और अस्थिर परिस्थितियों पर निर्भर करता है और व्यक्ति की इच्छाएं और अपेक्षाएं निरंतर बदलती रहती हैं व और अधिक अधिकार पाने की चाहत और इसे खोने का डर, हमारे जीवन में तनाव और असंतोष का मुख्य कारण बनता है । हालांकि, यदि अधिकारों का उपयोग जिम्मेदारी, सेवा, और आत्म-साक्षात्कार के साथ किया जाए, तो यह स्थायी सुख का माध्यम बन सकता है। इसके अतिरिक्त यह ध्यान रखना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि सच्चा सुख अधिकार में नहीं, बल्कि उसे सही उद्देश्य और दृष्टिकोण से उपयोग करने में है क्योंकि अधिकारों का उपयोग चंगेज खाँ जैसे आक्रांताओं द्वारा भी किया गया और कलिंग के बाद अशोक द्वारा भी, अधिकारों का उपयोग रावण द्वारा भी किया गया व राम द्वारा भी । 


       अब विचार का अगला मुद्दा यह है कि अधिकार सुख मादक कैसे हैं ? अधिकार का मादक सुख मानव मनोविज्ञान, सामाजिक प्रतिष्ठा, और शक्ति के प्रति आकर्षण से जुड़ा हुआ है। यह मादकता इसलिए उत्पन्न होती है क्योंकि अधिकार व्यक्ति को विशेषता, स्वतंत्रता, और नियंत्रण का अनुभव कराते हैं। अधिकार व्यक्ति को दूसरों पर नियंत्रण और प्रभुत्व का एहसास देता है और यह शक्ति का अनुभव अत्यंत सुखद और प्रेरक लगता है। उदाहरण के लिए, एक नेता या शासक का अपने अनुयायियों पर नियंत्रण और अधिक संपत्ति पर अधिकार, व्यक्ति को स्वयं को दूसरों से अत्यंत श्रेष्ठ महसूस कराता है। इसके अलावा अधिकार व्यक्ति को समाज में विशेष पहचान और सम्मान दिलाते हैं और यह भावना अंततः अहम् को पोषित करती है, जैसे - कोई उच्च पद या सत्ता पर अधिकार और एक व्यक्ति का अपने समुदाय में विशेष स्थान प्राप्त करना। इसी संदर्भ में गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है - 


     नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं ।

प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं ॥


        इसके अलावा अधिकार व्यक्ति को यह विश्वास दिलाते हैं कि वे परिस्थितियों और लोगों को नियंत्रित कर सकते हैं जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है । यह नियंत्रण का भ्रम एक नशे की तरह लगता है। अधिकार समाज में सम्मान, प्रतिष्ठा, और प्रभाव का प्रतीक माने जाते हैं इसलिए लोग इसे पाने के लिए आकर्षित होते हैं और एक अंधी दौड़ में भागने लगते हैं । अधिकार अक्सर दूसरों से तुलना और प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देते हैं और "मुझे अधिक अधिकार प्राप्त हैं" की भावना व्यक्ति को एक अत्यंत मादक सुख प्रदान करती है। आधुनिक समाज में अधिकार, खासकर भौतिक अधिकार (जैसे संपत्ति, धन), सुख और सफलता के मानक माने जाते हैं और यह विचारधारा अधिकारों को और अधिक आकर्षक बना देती है। अधिकार जितना अधिक मादक होता है, उतना ही व्यक्ति अधिकाधिक अधिकार प्राप्त करने की लालसा में फंस जाता है और यह लालसा व्यक्ति को कभी संतोष नहीं देती। अधिकारों की मादकता इतनी गहन होती है कि यह व्यक्ति को अपने नैतिक मूल्यों, सामाजिक मूल्यों और कर्तव्यों से भी भटका सकती है । इसके व्यापक उदाहरण हमें समाज में भ्रष्टाचार, असमानता, अन्याय, शक्ति के दुरुपयोग आदि के रूप में देखने को मिलते हैं। 


        अधिकार सुख केवल मादक ही नहीं बल्कि सारहीन भी है। सारहीनता का अर्थ है किसी चीज़ का मूल्य, महत्व या उपयोगिता न होना और अधिकारों को सारहीन कहने का अर्थ है कि अधिकार, जो आमतौर पर शक्ति, प्रतिष्ठा, और नियंत्रण के प्रतीक माने जाते हैं, वास्तविक सुख, संतोष, और जीवन के अर्थपूर्ण उद्देश्य प्रदान करने में असमर्थ हो सकते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि अधिकार अक्सर बाहरी उपलब्धियों और सामाजिक मान्यताओं पर निर्भर करते हैं, जो अस्थायी और सतही होती हैं। अधिकारों से मिलने वाला सुख क्षणिक होता है और यह स्थायी आनंद और संतोष प्रदान नहीं कर सकता। ध्यातव्य है कि सच्चा सुख और संतोष व्यक्ति के आंतरिक संतुलन और उद्देश्य पर निर्भर करता है व अधिकार केवल बाहरी साधन हैं, जो आंतरिक संतोष का विकल्प नहीं बन सकते। इसके अलावा अधिकारों की असमानता समाज में असंतोष, संघर्ष, और अन्याय को जन्म देती है व इससे अधिकारों का वास्तविक उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है। इस दृष्टि से भी अधिकार सुख सारहीन ही दिखाई देता है। इसका उदाहरण हमें जयशंकर प्रसाद के नाटक स्कंदगुप्त में भी देखने को मिलता है जहाँ स्कंदगुप्त कहता है कि “अधिकार-सुख कितना मादक और सारहीन है! अपने को नियामक और कर्ता समझने को बलवती स्पृहा उससे बेगार कराती है! उत्सव में परिचारक और अस्त्रों में ढाल से भी अधिकार-लोलुप मनुष्य क्या अच्छे हैं?” इस प्रकार अधिकार सुख अततः आत्मवंचना को महसूस कराता है। 

         

      अधिकार और सुख के बीच का संबंध जटिल, लेकिन विचारोत्तेजक है। अधिकार प्राप्ति की लालसा स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति है, क्योंकि यह शक्ति, विशेषता, और सम्मान का अनुभव कराता है। हालांकि, अधिकारों का सुख अक्सर क्षणिक और मादक होता है, जो व्यक्ति को अंतहीन लालसा और तनाव के चक्र में डाल देता है। सुख और अधिकार तभी सार्थक हो सकते हैं, जब उनका उपयोग कर्तव्य, सेवा, और नैतिकता के लिए किया जाए क्योंकि सच्चा सुख बाहरी अधिकारों में नहीं, बल्कि आंतरिक संतोष और आत्म-जागरूकता में निहित है। अधिकारों का सार्थक उपयोग व्यक्ति को केवल शक्ति नहीं, बल्कि समाज और स्वयं के प्रति जिम्मेदारी का अनुभव कराता है। इसलिए, अधिकार सुख तभी स्थायी हो सकता है, जब यह केवल व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा नहीं, बल्कि समाज और मानवता के व्यापक हितों की पूर्ति का माध्यम बने और यही हमें आंतरिक शांति भी दे सकता है। अंततः यह कहा जा सकता है कि : -

        

              अधिकारों की मादकता है, एक भ्रम का खेल,

                क्षणिक सुख की राह में, खो जाएँ कई मेल।

                                              शक्ति, सम्मान और प्रतिष्ठा, सब क्षणिक यहाँ,

                                               आंतरिक शांति के बिना, सुख होता कहां।।       


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