By Shivam Nahar
वो थक के रुक के टूट जाए, जब नकारा जाए जीवन में
और बांध फूटने दे देह का, जो शांत पड़ा है इस मन में,
बस डाल दे हथियार सभी, और चले झुका के सर अपना
जो साध ना पाता बोझ कोई, वो क्या साधेगा फिर सपना,
हाय लज्जित है चिल्लाता है, है खीज भरा बैठा मन में
कहता है सबसे प्यार करे, पर चाहता है रहना वन में,
दुनिया की सारी फिक्र उसे, चाहता है करना कुछ विशाल
हां रहता है कर्तव्य निष्ट, किन्तु मन में मृत्यु ख़्याल,
ये क्या है जो मध्यस्थ नहीं, बस अनंत छोर पे रहता है
इंसान कितना भी सुलझा हो, फिर भी दुविधा में रहता है
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वो दुखी नहीं है ख़ुद से पर वो खुश होके क्या पाएगा
ये सोच के पागल होता है, जो लक्ष्य मिला क्या भाएगा ?
लिखना, पढ़ना, कहना, सहना सब आता है उसको लेकिन
ये बात किसी से कैसे हो, क्या ढूंढ रहा वो दिन–प्रतिदिन,
हां नित्य सवेरे ध्यान करे, और झूर के फिर व्यायाम करे
ऐनक पहने आंखें फोड़े, और कलम से दूरी तमाम करे,
दिन भर गुज़रे दीवारों में, ना सुध ले पाए पहर कोई
सूर्य उदय दिखलाओ उसे, जब सुकून की आए सहर कोई,
वो सोच रहा है जगह यहां ’कैलाश’ जिसे सब कहते हैं
वहां बहती है पावन नदिया, और महादेव भी रहते हैं,
वो सोच रहा है उत्तर सब, गर उत्तर में जाके मिले उसे
तो क्या प्रश्नों के बाद उसे, आ घेरेंगे फ़िर प्रश्न नए ?
कैसा है चक्र, क्या चाहता है, गर जान गया क्या खुश होगा?
या जीवन का है सत्य यही, जो जान गया वो लुप्त होगा ?
By Shrivam Naha
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