By Prabhneet Singh Ahuja
तारीकियों में जलसे कबसे जले जा रहे हैं,
फनकार अपने बनाए ढांचों में कबसे गढ़े जा रहे हैं,
बंद-आंख; बताए रास्तों पे कबसे चले जा रहे हैं;
आज़ाद पंछी भी भला सरहद का सोचते हैं,
ये तो क़ैद इंसान हैं जो अपने वतन के लिए मरे जा रहे हैं।
By Prabhneet Singh Ahuja
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