By Santosh Kanoujia
“परिंदो के ना जाने, कितने आशियाने मिटे हैं
इंसानी सुविधाओं मे,जब जब पेड कटे हैं”
तिनका तिनका धूप बारिशों में, ढूँढने है जाती
तब जाकर चिरैया घोंसला, बना है पाती
हमारे सुगम जीवन की कीमत,
कितने पक्षियों का घर, उजाड है आती ।
दाना चुगने को चिरैया, सुबह घोंसले से उड़ती है
दाने दाने को भटक कर, जब घर को मुड़ती है
लौटी तो देखा सब उजडा हुआ था,
और अपनों की कोई खबर, भी नहीं मिलती है।
“सोचना कभी तुम्हे, कुछ ऐसा देखना पड़ जाए
तुम बेखबर, तुम्हारे अपने बेघर और तुम्हारा सब उजड जाए”
खैर, बेघर परिंदों की आहों की मत सोचो
अपनो के बीच, अपनो की सासों की सोच लेना
प्रकृति से जुड़ा है सभी का जीवन,
उजाडना नहीं, संवारना सीख लेना..पेड़ो को काटना नहीं, उगाना सीख लेना ।
By Santosh Kanoujia
बहुत खूब बहुत खूब 👌🏻
This poem is so inspirational for all humans And we should literally save our environment great work done by you big brother. May u achieve everything you want 🙏
अद्भुत, अति उत्तम पंक्तियाँ , कितनी सहृदयता और भावुकता है।
आशा करती हूँ आपकी ये रचना बहुत से लोगों को पेड़ लगाने के लिए प्रोत्साहित करे , प्रकृति से प्यार करना सिखाए ।
मनमोहक कविता है। ऐसे ही और कविता लिखते रहें। 🙏🏻❤️✨
आपकी कविता बहुत अच्छी हैं!