By Dr. Anil Chauhan "Veer"
उस गली में बरसों बाद गया,
जिस गली इबादत बसती थी ।
जिस गली में जीना मरना था,
जिस गली में चाहत बसती थी ।।
जिस गली की कच्ची सड़कों पर,
एक धूल मोहब्बत वाली थी ।
जिस गली का दिन रोज़े जैसा,
जिस गली की रात दिवाली थी ।।
जिस गली लड़कपन बीता था,
जिस गली जवानी आयी थी ।
जो गली थी उदयाचल अपना,
ली जहाँ प्रथम अंगड़ाई थी ।।
हाँ वही गली, बस वही गली,
जिस गली में हुस्ना रहती थी ।
अपने घर के छज्जे पर चढ़,
जो इक पगले को तकती थी ।।
वो पागल भी क्या पागल था,
उस गली से होकर जाता था ।
हुस्ना की नज़र ना पड़ जाए,
ये सोच-सोच घबराता था ।।
वो गली सरलता पर दोनो की,
मंद-मंद मुसकाती थी ।
वो नवल हंस के जोड़ों के,
दर्शन कर के ना आघाती थी ।।
फिर वही हुआ, जो होता है,
उस गली में शहनाई गूंजी ।
कुछ मंत्र पढ़े थे पंडित ने,
फिर गली में तन्हाई गूंजी ।।
वो छज्जा अब वीरान हुआ,
अब हुस्ना वहाँ नहीं रहती ।
उस गली में पसरे सन्नाटे,
सन्नाटों में चीखें रहती ।।
उन चीख़ों की प्रतिध्वनियों से,
वो गली कसकती रहती है ।
शहनाई की आवाज़ों से,
वो गली सिसकती रहती है ।।
उम्मीद नहीं मरती कहकर,
वो पागल अब भी आता है ।
जाने हुस्ना की ख़ोज में है,
या गली से उसका नाता है ।।
By Dr. Anil Chauhan "Veer"
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