By Kamlesh Sanjida
मैं हूँ एक औरत,
अस्तित्व खोजती रही
अपना ही सभी को,
जैसे बोलती रही।
मुक़द्दर को भी जाने,
मेरे क्या मंजूर रहा
मैं खुद के ही भीतर,
ख़ुद को खोजती रही।
पहचान भी तो मेरी,
यहाँ कुछ भी न रही
भीतर ही भीतर ख़ुद,
बस सोचती रही।
किसी ने कहा,
मैं तो बेटी हूँ उसकी
और फिर किसी की,
बहन होती रही।
कभी किसी बाप ने,
मुझे दान कर दिया
और कन्या दान सा,
दान होती रही।
बन बहू किसी के,
घर में तो रही
पर फिर भी उनके,
घर की न रही।
गिनती तो मेरी जब,
मेरे घर में ही नर ही
बस अमानत सी होकर,
जैसे फिरती रही।
बचपन से ही मैं तो,
बड़ी दुविधा में रही
जहाँ पैदा हुई,
मैं उनकी भी न रही।
किसको समझूँ अपना,
और किसको पराया
मैं तो हमेशा ही,
औरों के अधिकार में रही।
जाने कैसे- कैसे,
रिश्तों में बस बटती रही
घर और बाहर ,
जैसे मैं तो घिसती रही।
कभीबहू बनकर ,
मैं उनकी चलती रही
कभी बीवी बनकर,
जैसे पिसती रही।
काँटों पे डगर मेरी ,
हर वक़्त ही रही
साँसों की डोर मेरी,
ऐसे ही थमती रही।
कभी माँ के फ़र्ज में,
जैसे उलझती रही
जिंदगी में हर वक़्त,
जैसे सुलझती रही।
जिसको समझा मैंने,
उसे फिर समझती रही
उतनी ही तो जैसे,
जिंदगी उलझती रही।
सोच मेरी भी तो यहाँ,
मेरी ही न रही
सबकी सोचों से,
जैसे मैं चलती रही।
पहचान मेरी तो,
यहाँ कुछ भी न रही
औरों की पहचान से ही,
बस बुलती रही।
पहचान मेरी तो,
सवाल बनकर रह रही
औरत हूँ बस औरत,
औरत बनकर रह रही।
By Kamlesh Sanjida
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