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क़ैद में है

By Devendra Shakyawar

मेरी ग़ज़लों की अज़ादी क़ैद में है,

देख तो, सब कुछ सियासी क़ैद में है।

ज़ेहन में उसके मैं, मेरे ज़ेहन में वो,

कौन जाने कौन किसकी क़ैद में है।

दानिशी पगड़ी जहालत के सिरों पर,

दानिशी रेशे सिरों की क़ैद में है।

आँसमा बोला ज़मीं को कैद कर लूं,

और यूँ वो आज ख़ुद भी क़ैद में है।

लो सियासत से उसे सुनना था बस सच,

एक भोलेपन में भोली क़ैद में है।

कायदों ने कुछ यूं घेरा है उसे आज

के बुढ़ापे की जवानी क़ैद में है।

आसमान से वो खुले पंखों में आया,

आके धरती पर तो पानी क़ैद में है।

यूं बुने किरदार मैंने के खुले सोच,

क्या कहा अब वो कहानी क़ैद में है।

लो ये पागल ख़ुद को बे-ख़ुद समझता है,

देख ख़ुद में तू ख़ुदी की क़ैद में है।


By Devendra Shakyawar


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