By Vidit Panchal
दिल्ली से चलती हैं
शाम को राहतें
ढूंढते हुए रास्ता
रईसी के नाकों से।
गांवो से सवेरे ही
चल पड़ती है उम्मीदें
आहिस्ते कच्ची सड़क पर
मुफ़लिसी के तांगे में।
हम रोज़ निकलते हैं
उठाकर कोशिशें कमरे से
लेकर सौ सवाल
अपने ही बारे में।
बची-खुची राहतें
थकी हुई उम्मीदें
हमारे सब सवाल,
अस्पताल में लगते हैं कतार में
बँट जाते है आज़ारों में
ज़रूरत के हिसाब से।
By Vidit Panchal
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