By Sagarika Roy
मौन व्यथा
मां तेरे कोख में मैं महफूज़ थी,
हर एक चिंताओं से मुक्त थी ।
तेरी नाड़ी से जुड़ी,
मैं पोषण पा रही थी,
अभिमन्यु की तरह ही,
जिए जा रही थी।
तेरी सहनशीलता से मैं ,
पूर्ण संवेदनशील थी ,
तेरी कर्मनिष्ठता से सीख ,
बन रही कर्म शील थी ।
सभी को खिला ,
अंत में तू खाती थी ,
उसके बड़े हिस्से से ,
मैं ही तो पोषण पाती थी।
तेरे रक्त का एक एक बूंद ,
मुझे विकसित कर रहा था,
तेरा स्नेह ,प्रेम और त्याग ,
मुझे आकर्षित कर रहा था।
अभिमन्यु की तरह ही,
दुनियादारी का चक्र चलाना ,
सीख रही थी,
और ,
तू थी कि,
हर एक पल ,
मुझे सींच रही थी।
पता नहीं क्या हुआ कि ___
एक रात मेरी ,
मृगतृष्णा टूट गई,
और तेरी नाड़ी की डोर,
मुझसे छूट गई।
तू बिस्तर पर निस्तेज लेटी थी,
खो गई मैं ,
जो तेरी ही बेटी थी ।
तेरी दोनों आंखों से,
अविरल अश्रुधारा थी बह चली,
तू थी मौन,
अनकहा कष्ट सह रही ।
उस अश्रुधारा का हरएक बूंद ,
मेरे अजन्मे शरीर का लहू था ,
तेरे मेरे अनचाहे अपूर्ण मिलन की ,
मौन व्यथा अब कहूं क्या ?
मौन व्यथा अब कहूं क्या?
मौन व्यथा अब कहूं क्या?
By Sagarika Roy
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