By Kratika Agrawal
खुद को भी लुभाना छोड़ के बस खुद के साथ दो पल बीताने को जी मचलता है। एक सुबह हो बिना झंझट वाली जहां सूकून भरपूर हो। रूककर ज़रा उन चिड़ियों की चहचहाहट सूनने को मन करता है।
नहीं चाहिए कोई और नहीं बांटने किसी से गम, न आस करनी है खुशियों की, न अफसोस टूटे सपनों का।
कभी-कभी बस यूहीं बैठने का दिल करता है। खुद से मिलने को मन करता है।
ऐसा लगता है कि मैंनें हर दिन की मेहनत में खुद को आराम देना छोड़ दिया, कभी-कभी लगता हैं जिंदगी की रेस में खुद को ही पीछे छोड़ दिया।
चाय की चुस्की भी अब वो स्वाद नहीं देतीं। बिना काम के तो अब माँ भी आवाज़ नहीं देतीं।
सब तीतर-बीतर है अपनी जिंदगियों में, कहीं जिम्मेदारीयों का बोझ बहुत हैं तो कहीं ख्वाहिशों का शोर बहुत हैं। दो पल का सूकून भी कहीं नसीब नहीं होता, किसी के साथ बैठने में मन की तरंगें शांत कहा होती हैं, अपने साथ भी ये सादगी बड़ी मुद्दतों से नसीब होती हैं, चाय की चुस्की की आवाज़ बहुत होतीं हैं।
अब तो पंखे की हवा में भी शोर लगता हैं, अब तो ऐ. सी. में भी शरीर कमज़ोर लगता है, सुबह की वो ताज़ा हवा की वो थंडी सी थपकी चाहिए, अब कुछ पल ठहरकर खुद को ढूंढ लेना चाहिए। समय ने न जाने कौन-सी गुल्लक में चाबी बंद कर दी है, अब तो हम खुद से ही इतने दूर लगते हैं का आजकल अपने सामने भी न खुल के रो पाते हैं न हंस के कह पाते हैं। हम क्या हैं और कौन है सब भूल चुके हैं हम, अब तो नींद भी रात काटने के लिए ले रहे हैं हम।
पता नहीं कहां थे और कहा आ गए हम, सपने, ख्वाहिशें, आजमाईशें सब डब्बे में बंद हो गए कहीं, हम खड़े रह गए अकेले सब मैले हो गए खत्म। नींद का सूकून, जिंदगी का एहसास सब एक भ्रम सा लगता है, न जाने ये कौन सा दौर हैं जहां सब कुछ बेमतलब सा लगता है।
अब तो शब्द भी बड़ा रूक रूक कर आते हैं, जिंदगी के आईनों में बस अंधेरे ही नज़र आते हैं।
अब इंतज़ार है उस चाय की चुस्की का, जहां जश्न हो बस सूकून और शांती का, हवा की थपकीयां हमें सहलाती रहे, और धीरे धीरे हमें नींद आती रहे।
कभी-कभी बस यूहीं ठेहरने का मन करता है।
By Kratika Agrawal
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