By Usha Lal
कभी कभी मेरी कवितायें
मुझको भी छल जाती हैं
आँसू सारे सोख , स्वयम्
ये स्मिति में ढल जाती हैं !
मुझसे जादा दुनियादारी
सीख गयी हैं अब तो ये
सब कड़ुवाहट रोक कही
मधु रस में ये पग जाती हैं!
भले उपजती हैं ये मुझमें
लेकिन सारे भेद छुपा,
'बहुरूपिया'बन कर मुझको
भी विस्मित ये कर जाती हैं !
मन का दर्पण सच को लेकर
रह जाता है मन में ही
आडम्बर को ओढ़,फिसल ये
मोती सी बन जाती हैं !
इन्हें पता है इनकी पीड़ा
कोई बॉंट नहीं सकता,
सरस चाँदनी बन कर ये
हर ओर पिघल सी जाती हैं!
कवच सरीखी बन कर मेरे
अन्तर की इस टूटन का
पार करा सैलाबों से ये
साहिल तक पहुँचाती हैं !
By Usha Lal
Badhiya
Amazing
Superb
So beautifully expressed..!
Bahut sundar