By Aanchal Hassanandani
कविता लिखने की कोशिश कर रही हूँ
मन के बाग़ीचे में
पेड़ों पर लटकें
कुछ अध-पके भाव-विचार हैं
उन्हें तोड़कर शब्दों में पिरोने की कोशिश कर रही हूँ
पेड़ ज़रा उचाई पर हैं
हाथ वहाँ तक पहुँचतें नहीं
अभी लगता है ये पकड़ लिए !
पर मुट्ठी में वें आतें नहीं
गद्य से पद्य की ओर मुड़ना
ज़रा कठिन होता है
ओर वैसे, मुझे अतिश्योक्ति की आदत नही
क्योंकि "ज़रा" से तो बहुत अधिक ही कठिन होता है।
किसी नए विषय को चुनती हूँ
थोड़े कुछ दिमाग में वाक्य बुनती हूँ
लिखने लगती हूँ
ओर दस पंक्तियों तक चलती है मेरी कलम बिना रुकावट
"अरे! यह तो आसान था! मैं व्यर्थ ही नकारात्मक-हताश हो रही थी
बहुत बुरी है मेरी यह ओवरथिंकिंग की आदत"
फिर,जैसे कि अनिवार्य हो
एकाएक ही रुक जातें हैं मेरी कलम के पहियें
पद्य के इस नए रास्ते पर
मुझे तो यही लगता है अभी ही गाड़ी फिर से चल पड़ेगी
कुछ मिनटों में उलझनों को सुलझाकर
"क्या ये तुक बचकानें हैं"
"इस वाक्य को कैसे रचूँ"
जैसे सवालों का उत्तर पाकर
पर सोचती हूँ, और अधिक सोचने लगती हूँ
प्रश्नों-शंकाओं में घंटों दिनों तक उलझने लगती हूँ
मेरा शब्दकोष भी तो इतना विस्तृत नही
ना ही मुझे छंदों के नियमों का ज्ञान है
अलंकारों से आभूषित कर कविता को
आह्वान कैसे करूँ पाठकों का
ना इसका विशेष विचार है।
सोचा ही नही था कभी देखूँगी
उत्सुक नज़रों से काव्य-पथ की ओर
जो युद्ध लड़ने होंगे
कहानियों की भूमि पर ही लड़ूँगी
करुँगी सारें यत्न कठोर
पर एक दिन,
न जाने क्यों
खुद को भटकने की मैंने इजाज़त दी
जो था चित्त में गढ़ा हुआ
उसे काव्य लय में बहाने की कोशिश की
कुछ कोशिश थी,
कुछ अकस्मात ही भीतर से उमड़ने लगा
जिसका आरम्भ २-४ पंक्तियों से किया था
विचारों की सीढ़ियाँ चढ़
शब्द-दर-शब्द
एक से अनेक छंदों में परिणत हुआ
परिणाम जो सामने था
वो कुछ तो कविता जैसा जान पड़ा
प्रयास पहला था
ओर उस पूरी प्रक्रिया में
एक अभूतपूर्व सा मैंने अनुभव किया
इसी अभूतपूर्व अनुभव की खोज में
जैसे रेतीले बिस्तर पर सीपियों की तलाश हो
अपने मन को टटोल रही हूँ
कितनी पंक्तियाँ लिख कर मिटा रही हूँ
कभी असंतुष्ट-कभी खीज से भर उठ रही हूँ
कभी किन्हीं पदों से निश्चित-अनिश्चित सी आगे बढ़ रही हूँ
इस संघर्ष से लड़ते-खेलते हुए
मैं कविता लिखने की कोशिश कर रही हूँ
By Aanchal Hassanandani
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