By Swayamprabha Rajpoot (Alien)
कभी साथी, कभी हमदम कभी मदमस्त होती हैँ...
कभी दोषों को करके अस्त,तुम्हारी दोस्त बनती हैँ...
जो वक़्त बिताओ संग इनके, खुद को भी भूल जाओगे..
मोहब्बत की मूरत हैँ वैसे तो, ज़रा सी सक्त होती हैँ...
बहुत ही खूबसूरत वक़्त अब तक चला इनका...
मगर छिपा कर आजकल खुद को, कहीं कोने में रोती हैँ...
कभी अफ़सोस इनमें था, कभी कितना हँसाती थीं...
कभी आश्चर्य था इनमें, कभी थोड़ा रुलाती थीं...
किसी के इश्क़ का किस्सा,कभी रूह से सुनाती थीँ...
कभी आशिक के जख्मोँ पे,ये मरहम लगाती थीँ ...
महापुरुषों, शहीदों की गरिमा का गीत गाती थीं ...
तरीका हो भले जैसा, हमेशा कुछ सिखाती थीँ...
आओ चलो तुमको,किसी अपने से मिलवाऊं...
उन्हें जानते हो तुम भी,चलो नज़राना करवाऊं...
जिन्हें पाकर सब कुछ कभी,हम भूल जाते थे...
हाथों में पकड़कर , सीने से लगाते थे...
तुम्हारी दोस्ती के किस्से,चलो मैं अब सुनाती हूँ..
जिसे तुम भूल बैठे हो, चलो उससे मिलाती हूँ...
लो मिलो इनसे,इन्हीं से दस्तानेँ हैँ...
जिन्हें तुम भूल बैठे हो, ये वही किताबें हैँ...
किताबों से मिले शायद तुम्हें,एक वक़्त बीता है...
जो हारा नहीं इनसे, भला कैसे वो जीता है...
किताबों के पन्ने,अब पलटाये नहीं जाते...
मोबाइल बिन कुछ पल भी,बिताये नहीं जाते...
कहाँ है वक़्त अब इतना,कि इनके संग बिताओगे...
तुम अपने लैपटॉप में ही खुद को भुलाओगे...
क्या तुम्हारी उंगलियों को याद,पन्नों को पलटना है?
या शामिल उनकी आदत में, स्क्रीन पे खुद को घिसना है...
किताबों की जगह अपनी,अपनी नये आविष्कारों की है...
नज़र को भी ज़रुरत, कुछ नये नज़ारों की है...
पर बताओ क्या इन्हें,तुम चूम पाओगे?
बांहों में लेकर,ज़रा सा झूम पाओगे?
किताबों में रखे फूल,क्या यूँ ही भूल जाओगे?
जो कलियाँ ना हो इनमें, क्या इमोजी से लाओगे?
किताबों में छिपा कभी,जब एक फूल मिलता था...
चेहरा ही नहीं दिल भी तुम्हारा, खूब खिलता था...
किताबों को गिराकर,मिलाना चुपके से नज़र उनसे...
मेहबूब का ख़त भी, किताबों में ही मिलता था...
नयी किताबों की खुशबू का एहसास, हाय कैसे भुलाऊं मैं...
वही ख़ुशबू नये फ़ोन में क्यों ना पाऊं मैं?
वो पैसों का कभी इत्तेफ़ाक़ से, पन्नों में मिल जाना...
उन्हें यूँ देख कर मेरा,थोड़ा सा खिल जाना...
बहुत अब याद आता है मुझे,जो इश्क़ था इनसे...
किताबें रख के सीने में, कहीं सपनों में खो जाना...
बड़ी अब दूर निकली हूँ, है मुश्किल लौट के जाना...
पर मुमकिन है मेरा,हर रोज इनको वक़्त दे पाना...
टेक्नोलॉजी संग चलूँगी मैं, इन्हें पर साथ लेकर के...
भरी तपती दोपहर में, इनकी बरसात लेकर के..
ज़रा सा वक़्त तुम भी दो,सुनो इन दास्तांनों को...
ज़रा अपना बनाओ तुम,इन प्यारी किताबों को...
है गूगल जानता भले ही सारे जवाबों को, मगर खोला करो तुम इन ज्ञानों के पिटारों को...
तुम्हें हर राह देंगी ये... तुम्हें आबाद कर देंगी...
इस भरी दुनिया में तुम्हें कुछ, खास कर देंगी...
चलो मिल के ज़रा सा वक़्त,इनके संग बिताते हैँ...
दोबारा ख़त मोहब्बत के,चलो इनमें छुपाते हैँ...
हैँ अरसोँ बीत गये चैन से सोये हुए शायद...
चलो किताबें सीने में रखकर फिर से सो जाते हैँ..
रोज थोड़ा सही इन संग मुस्कुराते हैँ...
चलो फिर से हम इन किताबों के हो जाते हैँ…
By Swayamprabha Rajpoot (Alien)
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