By Neeru Walia
बंद मुट्ठी में फिसलती
रेत की तरह ,
ढलती शाम की तरह, ढल रही जिंदगी।
एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में ,
एक दूसरे को छल रही जिंदगी ।
बदलते वक्त के साथ, मौसम बदल गए,
सोच बदली , इंसान भी बदल गए ।
रब की इंसानियत पर इतनी रहमत रही ,
मां बाप के किरदार वही रहे।
धन -दौलत के नाम पर जीने के मायने बदल गए,
रब से दुआ कर, जो संतान पाई।
रोजी- रोटी के नाम पर वे विदेश में जा बसी,
जिंदगी के नाम पर जो मां बाप के हिस्से आया,
कोई प्लाट या डालर के नाम पर धन आया।
जिन बच्चों के संग बुढ़ापे में सहारे की उम्मीद जगी थी,
बूढ़ी हड्डियों में वह भी धूमिल पड़ गई ।
जिंदगी की भाग दौड़ में क्या खोया ,क्या पाया?
इसी सोच में जिंदा लाश की तरह जिंदगी निकल गई।
ढलती शाम की तरह , ढल रही जिंदगी।
ढलती शाम की तरह , ढल रही जिंदगी।
By Neeru Walia
NICE
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