By Kuldeep Kumar
क्लास खत्म होते ही सीढ़ियों से जैसे ही नीचे उतरा तो देखा कि बारिश बहुत तेज है। क्लास के अंदर पता ही नहीं चला कि कब बारिश शुरू हो गयी और वैसे भी चंडीगढ़ में बारिश कब शुरू हो जाये पता ही नहीं चलता, खासकर अगस्त सितम्बर के महीनों में। खैर बारिश को देख कर सुखद अहसास होता है। एक पल में जैसे बचपन की बारिश की यादें ताजा हो जाती हैं। वो दोस्तों के साथ गलियों में भाग कर निकलना, बहते पानी में कागज की कश्तियों की दौड़ लगाना, ठहरे पानी मे गोते लगाना, जिद्द करके पकौड़े बनवाना। सच में तब इंतज़ार था कि बारिश कब आये। वो सब यादें कि जैसे खड़े खड़े ताजा हो रहीं थीं और बारिश बढ़ती ही जा रही थी। आज बारिश को देख कर खुशी नहीं हो रही थी। रात के 8:30 बज रहे थे और घर जाने की भी जल्दी थी। अब तो जैसे कि नाराजगी सी थी इस झमाझम बारिश से लेकिन कहीं ना कहीं मेरे अंदर का बचपन आज कह रहा था कि यार चल निकल पड़ इस बारिश में, भीगा ले खुद को आज फिर उसी बचपन की तरह, खो जा आज फिर से उन बीती यादों में इन बारिश की बूंदों के साथ। लेकिन आज मेरे महंगे कपड़े और जूते मुझे इसकी इजाजत नहीं दे रहे थे। अब शायद मेरे साथ वहां खड़ा हर शख्स यही सोच रहा था कि इंतज़ार कर लेते हैं क्या पता रुक ही जाए ये बारिश क्योंकि सबके कपड़े औऱ जूते यही कह रहे होंगे कि क्यों भीगना? अब बात सिर्फ कपड़ों और जूतों की ही थी तो सोच भी लेते कि कोई बात नहीं सूख जाएंगे लेकिन यार पास में एक ऐसी चीज थी कि जिसका भीगना आज के वक़्त में मरने बराबर है, वो है मोबाइल फोन। तेज झमाझम बारिश जो सुकून देती थी कभी, आज वही बारिश मुझे मेरे फोन की कातिल लग रही थी। अगर फोन को कुछ हो गया तो किसके सहारे दिन निकलेंगे, कैसे किसी से बात हो पाएगी। फोन का भीगना किसी बुरे सपने से कम नहीं लग रहा था, ना सिर्फ मुझे पर हर उस इंसान को जिसके हाथ में उस वक़्त फोन था, ये बारिश एक आंख नहीं भा रही थी।
एक घण्टे से भी ज्यादा इंतज़ार करते हुए भी बारिश नहीं रुकी, अब तो मेरी बाइक भी भीग कर तर हो चुकी थी। चुपचाप एक तरफ खड़ा हो कर बारिश को देखता रहा, और कर भी क्या सकता था? तभी मेरी नजर उन तीन बच्चों पर पड़ी जो इस बारिश में बिना किसी परवाह के कांधे पर कूड़ा उठाने का झोला लिए मदमस्त अपने पैरों से सड़क पर जमा पानी को उछालते जा रहे थे। ना कोई चिंता, ना कोई नाराजगी इस बारिश से और ना ही कपड़े, जूते या फोन भीगने का डर। खुद को लाचार और बेबस समझने लगा उन तीन बच्चों को देख कर। मन ही मन अपने बचपन को खोजने लगा। उनको देख कर फिर एक बार अतीत की यात्रा पर निकल चुका था, पर फिर वही मजबूरी थी कि भीग जाऊंगा। फिर एक दफा उन बच्चों को देखा और अगले ही पल खुद को ही समझाने लगा कि यार ये मजबूरी तो दिखावटी है, हम सबकी। खुद को सबके सामने ये साबित करने लग जाते हैं कि साहब हम तो मॉडर्न हैं, ये बारिश में भीगना मॉडर्न लोगों का काम नहीं। शायद सूट बूट में भीगना शान के खिलाफ होता होगा तभी हम सभी इस दिखावटी मजबूरी के शिकार थे। उन बच्चों से ज्यादा जिंदादिल हम नहीं थे उस वक़्त। समझ नहीं आ रहा था कि असल मे जिंदगी के मजे कौन ले रही था उस बारिश में? पर जवाब सीधा था। वो बच्चे ही थे जो जी रहे थे उस पल को। मैंने भी खुद के अंदर के बचपन को महसूस किया। बगल की एक दुकान से पॉलीथिन का लिफाफा लिया और अपने सबसे अजीज को उसमें डाला, मतलब मेरे फोन को। फिर जैसे ही एक कदम सड़क पर पड़े पानी में गया तो लगा जैसे कि लौट आया वो बचपन। बाइक पर भीगते भीगते पूरे रस्ते एक एक पल को याद बना कर कैद कर लिया था मैंने। सड़क किनारे खड़े लोग मुझे देख कर या तो बेवकूफ समझ रहे थे या फिर उनमें से भो कोई तो होगा जिसने मेरे बचपन को मुझमें देखा होगा।
By Kuldeep Kumar
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