By Sampada Kulkarni
जब सुनने वाला कोई नहीं
और सुनाने वाले हजार हो,
तब खामोशियां अच्छी लगने लगती हैं।
जब कहने वाले लाख हो
पर हम कुछ कह न पाए,
तब खामोशियां अच्छी लगने लगती हैं।
जब कुछ लफ़्ज़ों का शोर
हमें मौन कर जाए,
तब खामोशियां अच्छी लगने लगती हैं।
जब बदलते वक्त के साथ
जज़्बात भी बदल जाए,
तब खामोशियां अच्छी लगने लगती हैं।
जब हमारे शब्दों के अहमियत
की कोई कीमत न रह जाए
तब खामोशियां अच्छी लगने लगती हैं।
जब समझ देने वाला लाख
पर समझने वाला कोई न हो,
तब खामोशियां अच्छी लगने लगती हैं।
जब लोगों की बातों से ज़्यादा
खुद की बातों से मिले सुकुन,
तब खामोशियां अच्छी लगने लगती हैं।
जब मतलब कि दुनिया का
मतलब समझ आने लगे,
तब खामोशियां अच्छी लगने लगती हैं।
जब कुछ कहने का दिल करे
और किसी से कुछ कह भी न पाए,
तब खामोशियां अच्छी लगने लगती हैं।
जब खामोशियों का मतलब भी
शब्दों में बयां करना पड़े,
तब खामोशियां अच्छी लगने लगती हैं।
By Sampada Kulkarni
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