By Neha Mishra
हर रात मिलता हूँ उसे वो लगता है मुझे ख्व़ाब सा जब से मतलब खत्म हुआ लगने लगा हूँ मै अज़ाब सा । मेरी हस्ती मिटा दो या मेरी गजलें दफन कर दो लौट आऊंगा हर बार मैं बनके इंकलाब सा ।
ऐ धरती को जो तुमने अपने बाप की जागीर समझा है मुझसे कह रहा था दरिया बहा दूंगा मैं इनको सैलाब सा । जलील कर मुझसे किनारा कर लिया है सबने याद रखना मैं दमकूगा आसमां में आफताब सा
By Neha Mishra
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