By Shivam Lilhori 'Baangi
(भाग - 1 )
हर तरफ बिखरे पड़े है चेहरे। कुछ इंसानी, कुछ रूहानी। दूर तलक देखिये बिखरी पड़ीं है कहानी। कुछ को तो जाने, कुछ अभी तक ना पहचानी। शून्य है कुछ आँखें, तो कुछ है बड़ी रुबानी। कुछ में है दर्द, तो कुछ को है बातें छुपानी। मज़ा तो तब है, जब उनकी कहानी जाने उन्ही की ज़ुबानी। वर्ना कहेंगे –
"साहब, हरगिज़ नहीं है सच, सब है कही सुनी अफवाहें पुरानी। " तो साहब गौर फरमाए, बात है उस ज़माने की। “अब आप सोच रहे होंगे कि किस ज़माने की ?”
अरे सब्र रखिये ज़नाब, बताते हैं। पर्दा हौले-हौले ही उठाते हैं। लुत्फ़ गरम चीज़ों का हलकी हलकी चुस्कियों से ही जमातें है। उसी ज़माने की जो हम सब की ज़िन्दगी में एक बार तो आया, फिर कभी किसी ने वापस ना पाया। वादियों में जब बर्फ पिघल चुकी थी, मगर गर्मी कहर ढहाने का मन न बना पाई थी। हिमालय की तलहटियों में अभी भी रातें ठंडी थी। कालेजों में परीक्षायें होने वाली थी। ना ना गलत, बिलकुल नहीं। ग़लत ना समझ लीजियेगा, ये कॉलेज की कहानी नहीं है मगर विद्यार्थियों के जैसे अल्हड़ रवैये दिखाते परिपक़्व व्यक्तियोँ की आप बीती है। तो मुद्दे पे वापस आतें है। बात चल रही थे चेहरों की, तो जनाब ऐसा ही एक चेहरा है इनका। और एक चेहरा है उनका। इनके दिल में तो जाने कब से राग सारंग बज रहा है उनके लिए, वो भी कैहरवा ताल में। बस ढोला जी की छाया होले तो घूमर नृत्य करते-करते डोले, वो भी बाई सा बन के। और उनका दिल क्या चाहे ? यह तो भाई हमे भी नहीं मालूम है। अजी हम तो वो ही सुनते है जो इनका दिल फरमाता है हमसे। अब इनको ही नहीं मालूम के उनके दिल में क्या है, तो हमें कैसे मालूम होगा। आप भी सोच रहे होंगे की क्या ये "इनका, उनका" लगा रखा है। सीधे-सीधे नाम क्यूँ नहीं बताते भाई ? अरे सरकार कुछ फ़सानो में नाम ना हीं ले तो ही अच्छा होता है। जिनपे लिख रहे हैं उनके लिए भी और काफ़ी हद तक लिखने वाले के लिए भी। वैसे भी किसी अंग्रेजी के लेखक ने कहा है, की नाम में आख़िर क्या रखा है। वो अलग बात है की 'विलियम साहब' ने सोलह आने सच कह कर, नीचे अपना ही नाम सुनहरे अक्षरों में गढ़वा रखा है - 'शेक्सपियर'।
नाम का क्या है ?!!अजी हमारी माने तो नाम ही तो सारी फ़जीहत की जड़ है। गलती से गलत जगह नुक्ता लग जाए तो भले भाले इंसान का धर्म भ्रष्ट हो जाए। दोस्ती की पहली रवायत ये, के दोस्त नाम पर हमेशा पर्दा डाले रखना और हम तो ठहरे लंगोटिया यार इनके। तो मेहरबानी करके हमसे कुछ भी पूछिये, बस नाम ना पूछिये। ख़ैर, जो हो चुका है और जो मालूम है, उसकी दास्तांगोई तो कर ही सकते हैं । वैसे इस सब अफ़रा तफ़री में सबसे ज़्यादा गुणी, सुलझा हुआ, समझदार एवं ऐतबारी शख्स अगर कोई था, तो वो तो हम ही थे। ये तो आप समझ ही गए होंगे अब तक। नहीं समझे ? कोई बात नहीं, जैसे-जैसे मंज़िल करीब आएगी, सब अपने आप समझ में आ जाना है आपको। आमना सामना जब हो तो बस दुआ सलाम हो जाए। एक भी हर्फ़ ना वो बोले और इनकी क्या मज़ाल है जो एक भी लफ्ज़, लबों की डाली से टूट कर गिर जाए। समझते सब है, बस कहने से कतरा जाएँ। किसी से पूछा उनका हाल इनसे, तो कहते हैं की काफ़ी परेशान है आजकल। हमने सोचा गोया होना भी चाहिए। भाई, ज़माने भर को परेशान करके कैसे किसी को सुकून से सोना चाहिए। मगर बस यही वो अदा है उनकी जिसपे, हमारी समझ से, इनका दिल फ़िदा होना चाहिए। अगर गलती से कोई और फ़िदा जो हो जाए, तो लीजिये साहब कहर ढह जाए, इबादत करते-करते काफिर होने की मोहर चस्पा हो जाए। कल मिले थे वो इन्हे बाजार में। वो मिले थे या उनसे नैना मिले थे, ख़ुदा जाने, कहना मुश्किल है। लेकिन जनाब आसानी से कह भी कौन और कब पाया है। ये तो वो दरिया है साहब, जिसमे इंसान डूब के ही ज़िंदा निकल पाया है। खैर बताते हैं, बस नैना ही मिले थे और वो मुस्कुराके आगे बढ़ चले थे। कसम खुदकी, यह तो अपनी जगह से ज़रा भी ना हिले थे। आखें बंद कर उनके पल्लू को अपने चेहरे पे फिसलता महसूस कर रहे थे। उनकी खुशबुओं के बिख़रे कणो को समां से बटोरते चले थे। कई बार सोचते हैं की दिल कड़ा कर एक बार बोल ही दे। देखा जायेगा, जो होना होगा फिर हो जायेगा। कम से कम वो भरम तो टूट जायेगा। आर या पार, आख़िर खड़े कहाँ है, ये तो पता चल जायेगा। फिर सोचते हैं रहने ही दें, फिर वो मज़ा कहा रह पायेगा। बेकद्री ही सही बाद में, पर सुकून तो ये गुमान थोड़े देर को दे ही जायेगा। इनके अंतर्मन की उस उथल पुथल को हम भाँप रहे थे, ना सुनने के डर से ये कुछ भी कहने से बच रहे थे। वैसे भी समझदार नासमझ को नासमझ समझदार आखिर समझाए भी तो कैसे। बन्दर माफ़िक हैं, अपना तो बनाया नहीं जाता हमारा घर भी तोड़ के आगे बढ़ जायेगे। कुछ दिन और बीते। देखने दिखाने के सिलसिले ज्यों के त्यों बरकरार रहे। कभी कभी रस्ते मे टकरा जाएँ तो कुछ इकतरफ़ा हिम्मती बोल लबों से टपक जाएँ। फिर अगली मुलाक़ात का बहाना सोचने में ज्यादातर वक़्त गुज़र जाए। हर पहल इनकी, सर पत्थरों से टकरा के वापस लौट जाए। और हम ये सोचते सोचते मरे जाएँ, की काश वो अपनी तरफ से कुछ समझ के ही आ जाएँ, वर्ना इन्हे संभालना दिन-ब-दिन मुश्किल होता जाए। बेचैनी के आलम थे और मौसम सुहानी बौछारों वाला था। हर रिमझिम को तो बस आके, ठंडी ठंडी हवाओं से दिल सुलगाना था। भीगे मौसम में भी, इनके सूखे नैनों को पतझड़ का मौसम दिखलाना था। बस यही सोच के कदम इन्हे आगे बढ़ाना था। बड़े भोलेनाथ के भक्त बने फिरते थे, तो थोड़ा भोलापन आना लाज़िमी ही था। उस दिन ठान के निकले थे घर से, जोश इतना मानो सर पे कफ़न बाँध के ही बड़े थे। आज तो कह के ही रहेंगे। रंगीन जज़्बातों के सुई धागे से उनके मन पटल पे उम्दा चिकनकारी कर के ही मानेगे। हमने भी इस बार रोका नहीं, रोकना भी संभव कहा था। भाई विनाशकाल विपरीत बुद्धि, हमारी या इनकी ये कहना कठिन था। खैर सज धज के, टशन में निकले घर से। चेहरे की भाव भंगिमा बता थी, मानो पीछे गाना बज रहा हो –
" घर से निकलते ही, कुछ दूर चलते ही. ........ "
आगे जो हुआ वो कतई सुरीला न हुआ। बड़ी कर्कश आवाज़ के स्वामी ने अपने वाहन की सीमाओं का परीक्षण करना चाहा, परन्तु उनके इस परिक्षण का अनुमान इन्हे ज्ञात न हो पाया। अपनी चहल कदमी में भूल गए की सड़क पे चलने का सलीक़ा क्या होता है और फिर वही गलती की, जो नहीं करनी चाहिए थी। बीच सड़क पे बिन देखे कूद पड़े, लाख बचाते गाड़ी वाले भाई साहब मगर ऊपर वाले की मर्ज़ी के आगे न टिक सके। गाड़ी में गाना भी देखिये कितना सटीक बज रहा था –
"नीचे पान की दूकान और ऊपर ............."
जगह भी कुछ वैसी ही थी, मानो आँखों देखा हाल बयाँ कर रहा हो। मगर ये कोई गोविंदा की फ़िलिम नहीं थी, की कूद फांद करके बच जाए। टक्कर होनी ही थी, सो जा टकराये। पैर तुड़वाये, माथे पे टाकेँ लगवाये, अब लेटें है अस्पताल के जनरल वार्ड में पलकें बिछाये। अगल बगल चार दोस्त हैं , जिसमे से तीन नामुराद तो पिछले डेढ़ घंटे से चाय पीने गए हैं। बाकि बचा एक, यानी की हम, सो वो तो बैठे ही हैं, दुर्योधन बन सिरहाने। उम्मीद है की उठेंगे यह, फिर से जल्द ही। आखिर उम्मीद पर ही तो दुनिया कायम है। वैसे ये उम्मीद तो हमारी है, इनकी तो आप जानते ही होंगे। उनको खबर तो पहुँचवा दी है, मगर आई तो नहीं है मोहतरमा अभी तक देखने। इनके हाल पे एक शेर याद आया है, मुलाहिज़ा फरमाए –
"इब्तिदा इश्क़ है रोता है क्या, आगे-आगे देखिये होता है क्या।"
वैसे आपको इत्तला कर दे कि ये मीर साहब थे, अरे वही अपने मीर तकि मीर। यकायक याद आ गए तो कागज़ पे छा गए। कौन जाने उन्होंने भी दिल लगाया हो और मजनू बन पत्थरों से सर फुड़वाया हो। बाद में घरवालों ने अकल ठिकाने लगाई, तो बैठ गए लेकर कलम दवात और स्याही। हाल-ए-दिल कागज़ों पे उकेरते गए और वाह-वाही लूटते गए। उम्रदराज़ होने के बाद उसी को नसीहत कह के चलते बने। गौर तलब बात तो यह है की, सालों पहले आगाह कर गए थे। मगर बड़े बुज़ुर्गों की सलाह नज़रअंदाज़ करना तो इंसानी फितरत है।
वैसे सच कहे तो हम लेखक भी अजीब होते हैं, अपनों के भेस में रक़ीब होते हैं। ऊपर गुलज़ार साहब शायद हमारे दो नैनो की ही बात कर रहे थे। अगल बगल टुकुर-टुकुर ताकते नैनो को भीड़ में कोई कहानी दिखाई दे जाए तो बढ़िया और कुछ नहीं मिला लिखने को, तो हो जाओ पानी-पानी। अब ये पानी दुख में निकले है या शर्मिंदा होने के कारण, ये तो लेखक के मिज़ाज़ पे मुनहसिर है।
अपनी ज़िन्दगी में तो कुछ खास होता नहीं है और दूसरों की, दूसरों की ज़िन्दगी में दख़लअंदाज़ी करते थकते नहीं हैं। बैठे रहते हैं उल्लूओं की तरह शाम तलक इंतज़ार में। चाय की चुस्कियों और गुलिस्तां में अधखिली कलियों को नोचते जैसे तैसे दिन गुज़ारा जाता है पर दिमाग में कुछ नहीं आता है और रात में, और रात में ही कलम चलातें है की....
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गुटरगूं.... (भाग - 2 )
क्या बात है ,भाई वाह, क्या ख़ूब लिखा है !!! तारीफ़ों के पुल बाँधते-बाँधते वो थक नहीं रहे थे और हम ये सोचते-सोचते की भाई ऐसा भी क्या हमने लिखा है ?? कभी-कभी शायर को, खुद अपने लिखे पे ऐतबार कम होता है, कहीं पे बेतुका होने का एहसास भी पलता है। फिर भी, महफ़िल में कतराते हुए पेश करता है और ऐसे बेतुके कलाम पे अगर लोग दाद देते-देते न थके, तो ये गुमां और बुलंद होता है की उसने शायद, फिर कोई कमाल कर गुज़रा है।
खैर, महफ़िल ख़त्म होते ही हम निकले इनका हाल चाल लेने को। रास्ते में कुछ सोचते हुए चल रहे थे। या यूँ कहे इस बात पर ग़ौर कर रहे थे की पिछले कुछ दिनों से, सिलसिलेवार हुई घटनाओँ ने आख़िर,असर क्या छोड़ा है।
तो बात चल रही थी चेहरों की, याद है ना भूले तो नहीं। उनके चेहरे का हाल भी कुछ अच्छा न था। ख़बर सुन के कलेजा शायद मुँह को आ गया था। मगर ज़माने के रस्मो-रिवाज़ और खानदानी रुआब पैरों में बेड़िया बन के पड़ा था। इतना तो पक्का था की कोई चिंगारी इस पार भी भड़की थी। कुछ धीमे ही सही मगर उनके दिल से भी इनके लिए कोई आह तो ज़रूर निकली थी। ऐसा हम इसलिए कह सकते हैं क्यूंकि चुन्नी का कोना घूमाये, पलकों को भिगाये और महताबी चेहरे की रौनकें लूटाये, शाम को छज्जे पे मोहतरमा खड़ी दिखी थी। अरे नहीं जी, हमे नहीं, और इनकी भी ऐसी किस्मत कहा। हमारे एक दोस्त ने अपनी बड़ी-बड़ी मेंढक जैसी आँखों से देखा और फ़टाफ़ट अपने उस दूर के दर्शनों की बयानगी, हमारे सामने करने चला आया। अजी, बस यूँ समझिये बुझते दियो को उस कमज़र्फ ने जलाया। इनकी तो उखड़ी साँसों को क़रार दिलवाया। वो भले न आ पाए हों, मगर उनके तस्सव्वुर ने एक बार फिर, सीने में कही, अरमानो को सुलगाया।
"ज़नाब किस हाल में है, किस ख्याल में है ? " पूछते हुए हम कमरे में दाखिल हुये।
पलंग पे लेटे हुए "जनाब" अपने आप को "नवाब वाजिद अली शाह" के पोते से कम ना आंकते हुए, हमारी तरफ देख के, बस मुस्कुरा भर दिए। यह मंज़र देख के हम उत्साह से लबरेज़ हो गये। फिर मौज में आते हुए, सामने रखा हुआ शतरंज और मूड़े को इनके पास खिसका के बैठ गए।
अपना प्यादा बढ़ाते हुए, एक कुटिल मुस्कान के साथ अगले सवाल एक के बाद एक दाग बैठे-
"क्यूँ, जनाब, इस मुस्कराहट का राज़ क्या है ? क्या कोई पैग़ाम उनका मिल गया है ?"
जवाब देने से पहले अपने घोड़े को उठा के वो ढाई चाल चलवाये, फिर थोड़ा सा भरमाये। "उनके दिल में हमारे लिए कुछ तो है। लगता है, अब हम भी उनके अज़ीज़ों में हैं " हज़ारों ख्वाहिशों से जगमगाते नैनों से हमारी तरफ देखते हुए, बस इतना ही वो फरमाए। हमारे मन के खिले फूल मुरझाये और आगे कुछ कहने से पहले हम हिचकिचाए। बेग़ैरत होकर निकलना खुल्द से आदम का तो बड़े मियाँ ग़ालिब पहले ही बता गए थे। लेकिन उस समय वहीं बैठे-बैठे बड़े बेआबरू होकर उनके कूचे से इनके निकलने के मंज़र हमारी आँखों के सामने तैर रहे थे। खैर, आइना दिखाने का न तो हमारा कोई इरादा था उस वक़्त और ना ही इनमे इतनी कुव्वत थी की, आइने से आमना सामना कर सके। अगली चाल चलते हुए हमने पूछा - "हुज़ूर इतना जान गए हैं तो, ये भी फ़रमाये की आख़िर जाना कैसे?" "दिल से दिल की बात जुबानी ही हो ये ज़रूरी तो नहीं, कुछ फ़साने आँखों से भी बयान किये हैं किसी ने।" - बड़े शायराना अंदाज़ में हमारी बात का जवाब कुछ यूं दिया इन्होने। हम तो ठहरे उभरते हुए शायर, अब मिसरा उछला ही है तो शेर मुक्कमल करना हमारा फ़र्ज़ बनता है। सो अगली चाल में इनके "अस्ब" को धूल चटाते हुए हमने भी कह दिया- "गर चाहत है तो इक़रारी से मुक्कम्मल कर, वर्ना जज़्बातों की कब्र अक्सर दिल को बनते देखा है किसी ने।" इतना सुन के मानो बहती हवा से लेकर गुज़रता वक़्त तक थम गया। दूर पेड़ पे कहीं उल्टा टंगा कोई चमगादड़, मानों फिसल के गिर गया। कुछ वैसी ही शर्म शायद इन्हे भी आई, या न आई, हमें नामालूम भाई ऊपरवाला ही जाने। बहरहाल हलक़ से थूक गटकते हुए इन्होने हमें घूरा और फिर चुप चाप, बिना अगली चाल चले उठ गए। हमें लगा जैसे, अनजाने ही सही मग़र दुखती रख पे पुरज़ोर चोट हम कर गए। अब क्या बताएं आपको,दिल के भी हुज़ूर, अज़ीब ही मुआमलात हैं। कई बार लगता है जैसे क़ाबू में ना हालात हैं। लगी है दिल की जब, तो साहब यह बताये की बिन बोले ही अकेले-अकेले क्यों सुलगा जाए। अरे भाई, हाल-ए-दिल, लिख के, बोल के, चिठ्ठी पत्री से, फूल से, ख़ुद से या कबूतर के जरिये ही पहुंचाया जाए। अरे, उस मस्सकली को भी तो ज़मीन पे उतारा जाए। किसी तरह तो उनको, इनकी जावेदा कहानी से रूबरू कराया जाए। पड़े चाहे इबारतें मिटारते हुए ही, पर ख़याल-ए-ख़ुदा ज़ाया तो न जाए। भाई, इस मुआमले में, हमारी समझ में तो कुछ नहीं आये। बस उल्लू सी आँखें जमाये, शजर पे बैठक लगाये, टुकुर-टुकुर देखते जाएँ । वो शायद जाड़े के दिन थे। हाँ हुज़ूर जाड़े के ही दिन थे , गर्म कपड़ों की पर्त दर पर्त जिस्मों पे चड़ी थी। फिर भी बदन में जैसे सुइयाँ सी चुभ रही थीं। धूप का नामों निशाँ हफ्ते भर से नहीं था। बादलों ने आफ़ताब को चारो ओर से घेर रखा था। सर्दीयान इतनी ज़्यादा सर्द थी, उस रोज़, के साँसे भी जम जाये। और ज़रा सोचिये की ऐसे माहौल में किसी महफ़िल में हम हो और वो आ जायें, तो फिर इससे बेहतरीन, ख़ुदा से बिन मांगे और क्या मिल जाये। पर ये इतनी बरसती रहमतों की बारिश में भी बैठें थे, "नवाब साब", गुमसुम से कोना-ए-महफ़िल पकड़े हुये। मन में दरकार लिए कि हुज़ूर-ए-वाला से उनकी निग़ाहें चार तो हों। अरे हुज़ूर, चाहे करे शिक़वा-शिकायत या करें हुज्जत, इतनी है इल्तज़ा ख़ुदा से हमारी की, वो इनसे, या ये उनसे, दो चार तो हों। लेकिन जब भी बढ़ातें यह हिम्मती दो कदम उनकी तरफ, वो दो कदम और आगे बढ़ जातें थे। ज़ालिम फासलें भी इनके दरमियाँ कम नही होते थे। मिले वो अपनों से गले और ये गैरों की जमात में खड़े रह जातें थे। मगर कहते है न, हिम्मत-ए-मर्दा तो मदद-ए-ख़ुदा। मौका पाके, मन कड़ा करके, उनके सामने आख़िरकार धमक ही पड़े। हमने सोचा लो हो गया, आज तो बस सिर पे सैकड़ों छित्तर पड़े। इधर-उधर देख के हमने तो परदे की आड़ लेना ही सेहत के लिए मुनासिब समझा। मगर यह क्या हुज़ूर, सामने का मंज़र तो उलट निकला। हलकी फुलकी गुटरगूँ और दो हंसो का जोड़ा बाहर की ओर पलट निकला । इनकी क़ामयाबी पे हमारी तो बाँछे खिल गई, रोम रोम में सरसराहट दौड़ गई। ये सोच के की यार ने आज तो मैदान मार लिया, हमने सीना चौड़ा किया। माथे का पसीना पोछ फिर, परदे की आड़ से बाहर आने का मन में एलान किया । थोड़ी देर बाद इनको वापस आते देखा। हमारा तो दिल घबराया। अजी साहब, क्या बतायें, बस इनके चेहरे से तो हवाइयाँ उड़ते हुए पाया। हमें लगा न जाने क्या बात है, कही कुछ रूख़सारों पे उनसे रसीद तो ना करवाया।बुझे-बुझे से बैठ गए महफ़िल में, कोई कोना फिर पकडे। हमने सोचा चलिए इनके दिल में कही कोई चिंगारी भड़काई जाए। चलो, चल के कुछ पुराने शौक़ याद दिलाये जाये। "गम में साथी रम जाएँ" ये कहावत रह-रह के क्यूँ ना फ़िर याद आये। जब मिल बैठे दो यार, तो फिर साहब, कम ही है, गुज़रे वक़्त की रेत को जितना खोदा जाय। हसीन यादों को फिर ताज़ा किया जाए, पल पल में बीते हुए पलों का हिसाब लगाया जाये। फ़िर दो-दो घूँट अंदर जाएँ तो दिल का ग़ुबार बाहर निकलना शुरू हो जाये। कई, कही सुनी मुख़्तसर सी बातों पर घंटो न्यौछावर हो जाएँ। और ऐसे में ज़ख्मों को हल्का सा भी कुरेदा जाए, तो जुबां पे सच के सिवा कुछ और ना आने पाये। इस बार भी हमारी फितरती कारीगरी बाज़ न आई और मुसल्सल सी गुफ़्तगू में ख़लल डाल आई। "मियाँ कैसी रही, सीने में थी जो बात दफ़न, वो जुबां पे चढ़ी ?" हमने पूछा। इन्होने भी अपने तरकश से निकाला कर्णभेदी बाण, धनुष पे चढ़ाया और सीधा हमारी छाती पे तान दिया। "वो हमें नहीं................. आपको पसंद करती हैं।" ये सुन के हम ठिठक से गए। हमने कहा "भाई, मज़ाकिया बात हमें बिल्कुल पसंद नहीं आयी। " ये हमें अपनी लाल-लाल तर्राई हुई आँखों से घूरते रहे और कुछ न बोले। कभी-कभी नज़रे भी नश्तर सा चुभती हैं। घूरते शक़्स को क़ातिलों में शुमार करने पे आमादा होती हैं। फिर इनके ख़लिश भरे लफ्ज़ जो फूटें तो हमें वहां पे खड़े-खड़े पसीने छूटे- "मेरी आँखों को रिहाई दे, मुझे फिर न दिखाई दे।" ये फिकरा हमारे लिए कसा गया था या उनके लिए, ये समझ न आया। ख़ैर अब वहां पे एक पल को भी रुकना हमें मंज़ूर ना था। "इनकी-उनकी" के बीच में हमारा फँस जाना, ख्यालों में भी सोचा ना था। बिन मांगे जो नियामतें टपक रही थी, उन्हें बटोरना भी हमें गवारां ना था। उसकी चाशनी के छींटे हम पे पड़ रहे थे, जो गुलाब जामुन कतई हमारा ना था। हमें उस जुर्म के लिए गुनहग़ार ठहराया जा रहा था, जिसमे हमारा कोई हाथ न था। वहाँ से हम वापस घर की ओर निकल पड़े। पिछली घटनाओ को मन में दोहराते हुए की आख़िर कहा बात समझने में कमी पेशी रह गई थी। इनको, उनको, खुदको, उस मेंढक सी आँखों वाले दोस्त को कोसते हुए और ये सोचते हुए चले जा रहे थे कि -
"हम लेखक भी अजीब होतें हैं, कभी-कभी अपनों के भेस में, ना जाने कैसे रक़ीब होतें हैं। "
By Shivam Lilhori 'Baangi
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