By Chanda Arya
जैसे ही मुड़ कर देखा है अभी
लगा यूँ चाँद खिड़की पर आया हो तभी,
रेशमी हवाएं भी रुक गयी है सरसरा कर वहीं
पत्तों की ओस से बतियाने लगी है सही,
उन दबे लफ्जों की फुसफुसाहट कानों को सहला गयी है अभी
लगा यूँ चाँद खिड़की पर आया हो तभी ।
कुछ अपनेपन का सा अहसास हुआ है उन फुसफुसाहटों के स्पंदन से
फिर चाँदनी सहला रही मेरे चिंतन औ’ विवेचन को अति प्रेम से,
ये सब मुझे लग रहे जैसे के हों मेरे परम मित्र
संदेशा दे रहे कोई दिखला कर ऐसे चलचित्र,
जैसे ही मुड़ कर देखा है अभी
लगा यूँ चाँद खिड़की पर आया हो तभी।
इस सुनहरी रात्रि में चाँदनी है झिलमिला रही
सितारे भी अठखेलियां करते, कनखियों से है ताक रहे,
यूँ पढ़ लेना चाहते हों मेरे चिंतन औ’ विवेचन को
चौकन्ना सी हूँ कि वो मन के उद्गारों की पोटली कहीं बिखर न जाये,
मैं भी उनको गुन रही हूँ, ये भेद कहीं न खुल जाये
संजो लेना चाहती हूँ इन सब को मन की गहराइयों में कहीं
लगा यूँ चाँद खिड़की पर आया हो तभी ।
बंद कर पलकें जो देखती हूँ मैं फिर से
सरगोशियां बढ़ जाती उनकी मेरी खिड़की की चौखट से
झाँकने लगता वो चाँद मेरी खिड़की के किनारों से
सितारे, हवा और ओस की बूंदे जुगलबंदी करते शरारत से
इनकी निगाहें आ टिकी हैं मेरी खिड़की पर अनुराग से
जैसे ही मुड़ कर देखा है अभी
लगा यूँ चाँद खिड़की पर आया हो तभी
खुली आँखों का सपना जी रहा है मन मेरा
किसी तरह बस पकड़ लूँ मैं चाँदनी का एक सिरा
चाह रहा बेसाख्ता उड़ जाऊं हवा का हाथ पकड़
उन ओस की बूंदों की नमी लपेट लूँ बाँहों में उन्हें जकड़
उड़ती जाऊं उड़ती जाऊं पहुंच जाऊँ उस चाँद के पास
और सितारों के बीच में डेरा जमा लूँ वहीं कहीं आस-पास
फिर वही सरगोशियां वही शोखियां, हुआ करेंगी बार-बार
न कोई थकन न कोई शिकन, पंख हो रहा मन खुशगवार
जैसे ही मुड़ कर देखा है अभी
लगा जैसे चाँद खिड़की पर आया हो अभी।
By Chanda Arya
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