By Avaneesh Singh Rathore
थरथराती उंगलियां कह रही थी दास्तां
बता रही थी इक कहानी मुसाफिर की
जो ढूंढने निकला चार दिन की जान
घर छूटा सपने के आशियाने को
परिवार छोड़ा रोटी तलाश लाने को
उमर पूरी भागता रहा सबसे आगे निकल जाने को
देखा पीछे छूट गया सब जमाने को
जवानी भर भागा सबसे दूर जाने को
अब बुढ़ापे में ताकत नहीं वापस आने को
ये कथा है या व्यथा आज की
या उमर भर का अनुभव कोई
या आखिरी पड़ाव का बचा हिसाब कोई
थरथराती उंगलियां कह रही थी दास्तान
By Avaneesh Singh Rathore
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