By Dr. Anuradha Dambhare
उलज़ीसी ये जिंदगी आखिर जिम्मेदारियों के सहारे है कटती।
वो एक रेल गाड़ी की तरह है चलती जो कभी तेज तो कभी आहिस्ता,
और सुकून के स्टेशन पर है थमती।
वो जिंदगी भी क्या जिसमे सवालों के जवाब ना ढूंढ़ने पड़े,
वो जिंदगी भी क्या जिसको समजने के लिए तजुर्बे भी कम पड़ जाए,
वो जिंदगी भी क्या जिसमे खुदको खोकर फिरसे खुदकी
तलाश ना करनी पड़े,
आखिर वो जिंदगी भी क्या...
उलज़ीसी ये जिंदगी... और उसे सुलज़ाने की बेइम्तहा कोशिश करने वाले हम,
और इन कोशिशोको दोस्त बनाकर, उनका हाथ थामकर खुदहीको रास्ता दिखाने वाले भी हम।
उलज़ीसी ये जिंदगी जहा खुशयों के प्यास मे है भटकती
वहा जानकर भी अनजान बनकर गम को गले लगाकर मुस्कुराहट को आंखो मे लेकर है चलती,
हाथ से रेत की तरहा फिसलने वाली ये जिंदगी आखिर एक बार ही तो है मिलती..
एक बार ही तो है मिलती।
By Dr. Anuradha Dambhare
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