By Siddharth Surana
के मैं शुरुआत तुम्हारी उन पालकों से करूँ,
के जब तुम उन्हें झपकाति तो चंद पलों के लिए मैं
उजाले तलाशने निकल जाया करता था।
या तुम्हारे उन रेशमी से बालों का,
जहाँ मेरी उंगलियां फिसलने के लिए यूं तैयार थी
जैसे कि ओस की बूंदे उन पत्तियों की सतह को चूम कर निकल जाया करती हैं।
के बात करूँ तुम्हारे उन गालों के गड्ढों की,
जहाँ कई बार घिर चुका हूँ मैं,
या ज़िक्र करूँ तुम्हारे उन होंठों का,
जो सर्दियों के आफताब के समान लगते हैं ;
मुलायम और सुकूनदायक।
जब तुम सज-सवर कर पूछती; इस आस में कि मैं तुम्हारी तारीफ़ करूंगा,
तो मैं मुस्कुराकर झुठलाता देता था कि "हां ठीक ही तो लग रही हो ",
तो तुम्हारी उस गुस्से वाली अदा पे भी फ़िदा था मैं।
हर सुबह मखमली चादरों की सिलवटों में तुम्हारी खूबसूरती ढूंढना, एक रिवाज़ सा बन गया था।
के जब तुम रूठ जाती थी,
तो तुम्हे मनाने में ना जाने कितने बेफ़िज़ूल चुटकुले सुनाया करता,
और तुम उन पर एक मुस्कुराहट देकर मान भी जाती थी।
तुम ना हर चीज़ संभाले रखती थी;
वो पहला card जो मैंने तुम्हे दिया था,
वो पहली chocolate का wrapper भी जो तुम्हे बिलकुल पसंद नहीं आई थी,
और खासकर के मेरी hoodies;
खैर शायद उनका रेशम तुम्हारी त्वचा से ही लिपटने के लिए बना हो?
लेकिन लेकिन लेकिन..... मैं ना उन यादों को संभाल पाया, ना तुम्हे...
पर चिंता मत करो;
मैं अभी भी नर्म रातों को तुम्हारे साथ होने के एहसास के साथ गुज़ार लेता हूं,
मैं सुबह की गर्म coffee भी तुम्हारे दिए हुए cup से ही पीता हूं,
तुम्हारी बताई गई कहानियों को उतने ही प्यार से सुनता हूं,
तुम्हारे पसंदीदा गाने की धुन को आज भी अपने guitar पर बजाया करता हूं,
हर उस टूटते तारे में तुम्हारी झलक को निहारता हूं,
और हां हर रोज़ ज़िक्र तुम्हारा इस पन्ने से मैं,
करते जाता हूं,
करते जाता हूं।
By Siddharth Surana
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