By Abhimanyu Bakshi
ज़िंदगी है फ़ुरसत-ओ-मसरूफ़ियत के दरमियान,
मैं खड़ा हूँ तसव्वुर-ओ-असलियत के दरमियान।
एक हसरत थी दोनों में राब्ता बनाने की,
अब दुश्मनी है ख़यालात-ओ-हक़ीक़त के दरमियान।
मरकर मिसाल बनने का भी तो ज़िम्मा है मुझ पर,
कैसे जियूँ ला-फ़नाइयत-ओ-फ़नाइयत के दरमियान।
बन्दगी आती नहीं और भलाई ज़रा महँगी है,
मैं खड़ा हूँ इबादत-ओ-इंसानियत के दरमियान।
देखना ज़ाहिद कैसे फिर रुतबा मिट्टी होता है,
आकर बैठो कभी लोभ-ओ-रूहानियत के दरमियान।
By Abhimanyu Bakshi
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