By Surendra Kumar Sharma
हरसिंगार लगाया पर
उग आई नागफनी |
मुझको तो हर मग पर ही,
काँटों का साथ मिला |
हवन किया जब-जब भी मैंने,
तब ही यह हाथ जला |
इसीलिए मेरी तो सबसे,
पग-पग पर रही ठनी ||
हर मग, हर पग लड़ा बहुत हूँ,
खुद से या अपनों से |
उम्मीदें भी रखीं बहुत है,
छितराये सपनों से |
इसीलिए मेरी तो सचमुच,
खुद से ही नहीं बनी ||
जो चाहा वो मिला कहाँ है,
हर युग में इस जग में |
काँटें ही बिखरे पाये हैं,
मैंने तो हर मग में |
साँसों की वीणा टूटी पर,
दुर्गम यही राह चुनी ||
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By Surendra Kumar Sharma
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