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परिवर्तन

By Swayamprabha Rajpoot


इधर देखूँ उधर देखूँ, जहाँ देखूँ दिखेँ ये ही...

ये कैसा चला है युग, हर तरफ हैँ मशीनेँ हीं...

मुझे भी आदतें इनकी, नहीं कुछ भी शिकायत है...

हाँ मगर दिल में कहीं,छोटी सी हसरत है....

मेरी हसरत है देखूँ,फिर मेरा जहाँ वैसा...

ना जिसमें मशीनेँ थी, ना कारोबार था ऐसा...


वो मीठी छाँव पीपल की, घड़े का नीर था शीतल...

वो जैसा शख्स दिखता था, था वैसा ही बाहर-भीतर...

मगर ए.सी. के आँगन में, कहाँ वो छाँव मिलती है...

फ्रिज के पानी से ना वैसी प्यास बुझती है...

हैं थाली-कटोरी सब मैं अब खाऊं जिसमें चाहूँ...

मगर कैसे भला भुलूँ, वो पत्तों में मेरा खाना...


वो खेतों में चलाकर हल, धूप में सेंकना खुद को...

वो पानी डालकर खेतों में, ज़रा सा सींचना खुद को...

दिनों के काम तो घंटों में,भले अब हो जाते हैँ.. 

मुझको याद आता है, फुर्सत से वो देखना तुझको...

दोपहर में जब औरतें खाना ले आती थीं...

नमक रोटी भी मुझको छप्पन भोग सा भाती थीं.. 

नहीं शिकायत मुझको आधुनिक दौर से कोई...

खेतोँ वाली मोहब्बत कहाँ पर भूल पाती है...


मुझे वो याद है किसी का, बाहर कहीं जाना...

मोहल्ले भर में चर्चा थी, हमारा भी दे पहुंचाना...

वो हफ्तों के सफर अब,चँद घंटों में हो जाते हैँ...

नहीं है मगर जाते वक़्त,वो आँखों का छलक जाना...

हाँ ज़रा मुश्किल था,उस वक़्त बात हो पाना...

पर बड़ा एहमियत रखता था, किसी से बात हो जाना...

वो महीनों में भला चिट्ठी एक या दो हीं आती थी...

मगर पूछो उस कागज से, मोहब्बत कितनी लाती थीं...

जो आज हम सालों में नहीं, समझा पाते हैँ दिल को...

कभी वो एहमियत एक कागज की चिठ्ठी बताती थी...


मुझे याद है दादा का,वो खांस कर आना...

ज़रा सा घूँघट सिर पर रखके, माँ का काम निपटाना...

चुनर को ओढ़ कर,लड़कियों का आरती गाना...

वो सारी औरतों का बाद में मिल-बाँट के खाना..

नहीं शिकवा मुझे हैं आजकल के पहनावे से...

हाँ मुझे भाता था वो घूँघट में मुस्काना...

वो मोहल्ले में बैठ कर घंटों बतियाते थे...

हो घर में शादी कोई,महीनों पहले जाते थे...

मगर अब आज के वक़्त में वक़्त कितना है...

बड़ा तकलीफ देता है, घरवालों का मंडप के दिन आना...

मशीनेँ थी नहीं बिल्कुल, ज़रा सा काम मुश्किल था...

भले मुश्किल था सब करना, पर इंसान खुशदिल था...


कभी सोचा है तुमने, वक़्त अब कितना है बदला सा,,,

जो ना सोच सकते थे कभी, सामने अब है...

मगर मुश्किल है मेरा ये समझ पाना,,,

है आसानी सब में इतनी, फिर इतनी क्यों उलझन हैँ...

दिनों के काम अब चंद घंटों में निपट जाते...

मगर ना जाने अब भी वक़्त क्यों कम है...

वो पहले लोगों के संग वक़्त भी कितना बिताते थे...

जाने इस मोबाइल में, कितने लोगों का दम है...

वो पहले गम छुपाते थे, दिलों को भी बचाते थे...

अब सोशल मीडिया पर दिखाने के लिए भी कितना गम हैं...

पहले बीमारियां ज़ब,इंसान को दे रोग जाती थीं...

समझ आता था मुझे, कहाँ दवायें तब इतनी आती थीं...

मगर अब हैँ यहाँ सब कुछ, बीमारियां फिर भी ज्यादा हैँ...

पहले इतनी सुविधाएं भी कहाँ दी जाती थीं...


ना इंसान था पढ़ा इतना, ना उसको ज्ञान था सारा...

पर तहजीब आती थी, ना यूँ था आवारा सा...

ज्ञान अब इतना,मगर तहजीब खोयी है...

वो पहले सब्र इतना था, अब किसी को तमीज थोड़ी है...

अगर पढ़ लिख करके भी है माता-पिता को ठुकराना...

मुझे प्यारा बड़ा है, वो मेरा अनपढ़ ही रह जाना..

आधुनिकता नहीं है बुरी,बुरा हैं भूल सब जाना..

निकालो वक़्त खुद के लिए भी, ज़रूरी है समझ जाना...

मशीनेँ है कि तुम्हारा काम कम हो, वक़्त बचाओ तुम...

वक़्त को बचाने वाली मशीनों पर ना वक़्त ज्यादा बिताओ तुम...

मशीनेँ सोचती होंगी,क्या गलती हमारी है...

जाने क्यों ये इंसान,हमारा इतना आदी है...

ज़िन्दगी की रेस को,ज़रा विराम भी तो दो...

इन मशीनों को ज़रा, आराम भी तो दो...

करो महसूस प्रकृति को गर मुस्कुराना है...

इसी से अस्तित्व सबका है, यही जीवन हमारा है...

जुड़ो प्रकृति से, अब भी वक़्त बाकी है...

वरना होना अंत में सबको खाक ही तो है...


By Swayamprabha Rajpoot

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