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पहले ये चांद ऐसा नहीं था

By Mrityunjay Mishra

पहले ये चांद ऐसा नहीं था,  दाग इसमें तब भी थे पर ये खूबसूरत लगता था...

हाँ, उसके नूर के आगे चांदनी फीकी लगती थी मुझे, और ये चांद भी उसके चेहरे का तिल लगता था...


कभी रातों में जब उससे मुलाकात हो जाती थी, तो बात फिर चांद की भी हो जाती थी...

नाराज हो जाता था मैं उससे, जब वो चांद को खुद से खूबसूरत बताती थी...

मैं मासूमियत भरे उसके चेहरे को चूम लेता था, और अमावस की रात अपने चांद को देख लेता था...

वो कहती थी कि मैं किसी और की हो गई तो क्या करोगे, क्या भूल जाओगे मुझे या तब भी ऐसे ही याद करोगे...

तब मुझे उसका इस तरह कहना मजाक लगता था और मैं हंस कर उसकी बातों को टाल देता था...

मुझे नहीं पता था कि एक दिन उसका कहा भी सच हो जाएगा और वो मुझे छोड़ कर कहीं दूर चला जाएगा...

अब कभी जब चांद को निहारता हूं तो ये बड़ा बेजार नजर आता है...

किसी गुजरी हुई तारीख का रद्दी अखबार नजर आता है...

भले ही ये मेरे महबूब से कम नजर आता था, पर मेरी आंखों को बहुत सुहाता था...

जैसा भी था पर ऐसा तो नहीं था, पहले ये चांद ऐसा नहीं था...



By Mrityunjay Mishra


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