By Devendra Shakyawar
तुम मिश्री सी,
मैं पानी सा,
तुम मिश्री सी कठोर,
पर मीठी मीठी
मैं पानी सा आजाद,
पर खारा खारा।
तुम मिश्री की पहाड़ी,
मैं पानी का समंदर।
इक पहाड़ी को समंदर से प्रेम?
किसी ख़्वाब के ख़्वाब सा!
तुम मिश्री सी, मैं पानी सा,
पर समंदर को प्रेम हुआ!
मिश्री की पहाड़ी के मीठेपन से,
पहाड़ी के लिए ये आसान न था,
पहाड़ी को अपनी जात से बाहर,
ऐसा होना था?
पहाड़ी को पहाड़ से नही,
समंदर से प्रेम हो रहा था।
समंदर ने नदियों से प्रेम न करके पहाड़ी को चुना।
पहाड़ी समंदर तक नहीं आ सकती थी
समंदर ने अपनी हदें तोड़ना शुरू की
चांद की मदद से ज्वर पैदा किए,
पर बीच में सूखे रेत के टीले,
अकड़ के पथरीले पहाड़,
समंदर के लिए आसान न था!
दिन गुजरे, महीने और सालों बाद!
उसने पहाड़ी के पैरों को छुआ।
मिश्री समंदर में घुलने लगी,
अब हर रात समंदर अपने ज्वर तेज करता।
पहाड़ी से मिलता
मिश्री का मीठापन
समंदर में घुलता।
ठीक वैसे ही जैसे किसी जात का,
प्रेम में घुलना और मिट जाना।
By Devendra Shakyawar
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