By Kamlesh Sanjida
जिनकी गोद में खेले,
उन्हीं को काँधे पे उठाए
जिन्दगी के सफ़र में,
फिर कैसे मौके हैं आए।
रो-रो कर हैं बेहाल,
अब हिम्मत कहाँ से लाएं
अभी थे आँखों के आगे,
पल भर में ही बिसराए।
कैसे हैं क़ुदरत के रस्ते,
कुछ भी समझ न आए
आँसूओं के गंगा जल में,
सब दुःख हैं बिसराए।
जिन्दगी के सफ़र को,
कोई समझ न पाए
रोते -रोते ही तो पापा को,
हम विदा कर आए।
मुड़कर भी न देखा,
ये कैसा संकट ले आए
दिल की धडकनों को,
वक़्त कैसे अब दहलाए ।
मुसीबतों के पहाड़ तो,
हम पर गिर आए
उठाने की ताकत फिर,
अब कहाँ से हम लाएं।
कुछ सोचने के मौके,
हमको भी न मिल पाए
चन्द शब्द भी तुम्हारे,
मुख से सुन न पाए ।
जीवन के सफ़र में,
हमको तो छोड़ आए
कैसे हम अब जिएंगे,
अब सोच-सोच घबराएं।
तुम बिन अधूरे सपने,
कैसे हम पूरे कर पाएं
यादों के सफ़र में,
हमको बस छोड़ आए।
बाप को काँधों पर रखकर,
हम कहाँ छोड़ आए
लौटने के रस्ते सब,
हम ख़ुद बंद कर आए ।
ऐसी जगह पर छोड़ा,
जहाँ कुछ समझ न आए
राहें न हों वापसी कीं,
लौटकर कोई फिर न आए।
आँखों में भर आँसू,
ख़ूब रो – रोकर तो आए
अपने ही बाप को जब,
अर्थी पर हमने सजाए।
क़ुदरत के करिश्में भी,
कभी समझ न पाए
जिसको पल-पल बचाया,
उसी को आग में जलाए।
ख़ुद अपने ही हाँथों से,
चिता को आग लगाए
जिन्दगीं भर के ख़्वाबों को,
चिता संग जलाए ।
वक़्त ने भी तो देखो,
कैसे खेल सब हैं रचाए
एक दिन में ही तो,
सब क्रियाकर्म कर आए।
By Kamlesh Sanjida
पिता पर एक अच्छी कविता